Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० ५८ ]
भागसंकमेत वीस गदद्वाराणि
* ओकड्डुणादो उक्कड्डुणा दो च जहरिणया अइच्छावणा तुल्ला जहण क्खेिवो तुल्लो ।
२६. दाणि दो विसुताणि सुगमाणि । एवमुक्कड्डणाए अत्थपदपरूवणा समत्ता । परपयडिसकमे अइच्छावणा-णिक्खेवविसेसाभावादो तव्त्रिसयपरूवगा कया । एवमरणुभागसंकमस्स मूलुत्तरपयडिसंबंधितेण दुविहाविहत्तस्स परूवणाबीजमट्ठपदं काऊण जहा उद्देसो तहा गिद्देसो त्ति णायादो मूलपय डिअणुभागसंकमो चैत्र पढमं विहासियन्त्रो ति तप्परूवणाणिबंधणमुत्तरं सुत्तपबंधमाह
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* एदेण अठ्ठपदेण मूलपयडिअणुभागसंकमो ।
९ ३० एदेणाणतरपरूविदेण्टुपदेण मूलपयडिअणुभागसंकमो ताव विहासणिजो । तत्थ च तेवीसमणिओगद्दाराणि णादव्त्राणि त्ति उवरिमसुत्तमाह
* तत्थ च तेवीसमणि ओगद्दाराणि सण्णा जाव अप्पाबहुए त्ति २३ । ६ ३१. एत्थ मूलप डिविक्क्खा ए सग्णियाससंभवाभावादो। सण्णादीणि तेवीसगणिता । किमेदाणि चेत्र तेत्रीसमणिओगद्दाराणि मूलपयडिअणुभागसंकमे पडिबद्धाणि, उदाहो अग्गो वि परूत्रणाभेदो तन्त्रिसयो अस्थि ति आसंकाय इदमाह - * भुजगारों पदणिक्खेवो वडि सि भाणिदव्वो ।
I
* अपकर्षण और उत्कर्षण दोनोंकी अपेक्षा जघन्य अतिस्थापना तुल्य है और जघन्य निक्षेप भी तुल्य है ।
२६. ये दोनों सूत्र सुगम हैं । इस प्रकार उत्कर्षणकी अपेक्षा अर्थपदप्ररूपणा समाप्त हुई । परप्रकृतिसंक्रममें अतिस्थापना और निक्षेपविशेषका अभाव होनेसे उसके विषयकी प्ररूपणा की है । इस प्रकार मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृतिके सम्बन्धसे दो भेदरूप अनुभागसंक्रमकी प्ररूपणा के बीजरूप अर्थपदको करके उद्देशके अनुसार निर्देश होता है इस न्यायका अनुसरण कर सर्व प्रथम मूलप्रकृतिसंक्रमका ही विशेष व्याख्यान करना चाहिए, इसलिए उसकी प्ररूपणा के कारणरूप उत्तर सूत्रको कहते हैं
* इस अर्थपदके अनुसार मूलप्रकृतिअनुभागसंक्रम कहना चाहिये ।
३०. इस अर्थात् पहले कहे गये अर्थपदके अनुसार मूलप्रकृतिअनुभागसंक्रमका सर्व प्रथम व्याख्यान करना चाहिए। उसके विषय में तेईस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं यह बतलाने के लिए आका सूत्र कहते हैं
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* उसके विषय में संज्ञासे लेकर अल्पबहुत्व तक तेईस अनुयोगद्वार होते हैं ।
३१. क्योंकि यहाँ पर मूलप्रकृतिकी विवक्षा होनेसे सन्निकर्ष सम्भव नहीं है, इसलिए यहाँ पर चौबीस अनुयोगद्वार न होकर तेईस अनुयोगद्वार ही होते हैं। संज्ञा आदिक तेईस अनुयोगद्वार पहले कह आये हैं । क्या मात्र ये तेईस अनुयोगद्वार ही मूलप्रकृतिअनुभाग संक्रम से सम्बन्ध रखते हैं या अन्य भी तद्विषयक प्ररूपणाभेद है ऐसी आशंका होने पर यह सूत्र कहा है ।
* तथा भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि ये तीन अनुयोगद्वार भी कहने चाहिए ।