________________
२.-जैन धर्म में तीर्थकर-मान्यता
जैन परम्परा में सर्वोपरि उपासनीय देवाधिदेव अर्हन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु नामक पंच परमेष्ठी माने गये हैं । अर्हन्त प्रात्म-साधना द्वारा ज्ञानावरणी, दर्शनाबरणी, मोहनीय और अन्तराय इन चार कर्मों
जो घातिया कर्म कहलाते हैं के क्षय से बनते हैं। इन कमों के क्षय से उनकी आत्मा के अनन्त पंच-परमेष्ठी ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य गुण प्रगट हो जाते हैं । अन्त, अरहन्त, अरि
हन्त ये शब्द समानार्थक हैं । इन सबका एक ही अर्थ है-अरि अर्थात् शत्रु हन्त अर्थात् नाश करने वाला। प्रात्मा के शत्रु कर्म हैं। उनका नाश करने वाला अर्हन्त कहलाता है । सिद्ध वह प्रात्मा कहलाती है, जिसने सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके शुद्ध प्रात्म स्वरूप की प्राप्ति कर ली है अर्थात् जो संसार में सदा काल के लिए जन्म-मरण की परम्परा से मुक्त हो चुका है । अर्हन्त और सिद्ध दोनों ही परमात्मा कहलाते हैं। अन्तर इतना ही है कि प्रर्हन्त सशरीरी परमात्मा हैं और सिद्ध अशरीरी परमात्मा हैं। आयु कर्म शेष रहने के कारण अर्हन्त के चार कर्मजो अधातिया कर्म कहलाते हैं- अभी शेष हैं। जब उनके वे चारों अघातिया कर्म नष्ट हो जाते हैं, तब वे अशरीरी परमात्मा बन जाते हैं। वे ही सिद्ध कहलाते हैं।
__ शेष तीन परमेष्ठी-प्राचार्य, उपाध्याय और साधु साधक दशा में हैं और उनका लक्ष्य प्रात्म-साधना द्वारा प्रात्म-सिद्धि प्राप्त कर क्रमशः अर्हन्त और सिद्ध बनना है। साधु समस्त प्रारम्भ और परिग्रह का त्याग करके ध्यानाध्ययन द्वारा प्रात्म-साधना करते हैं। उन साधुओं में विशिष्ट ज्ञानी साधु, जो अन्य साधुनों को अध्ययन कराते हैं, उपाध्याय कहलाते हैं। उन साधुओं में से विशिष्ट ज्ञानवान, प्राचार सम्पन्न, शासन-अनुशासन में सक्षम, व्यवहार कुशल साधु को साधु-साध्वी-वावक और श्राविका यह चतुर्विध संघ अपना धर्मनायक स्वीकार करके उसे प्राचार्य पद प्रदान करता है, वह प्राचार्य कहलाता है।
इस प्रकार साधु, उपाध्याय और प्राचार्य ये तीन और परमेष्ठी होते हैं। ये ही पंच परमेष्ठी कहलाते हैं। जैन परम्परा में मान्य महामन्त्र णमोकार में इन्हीं पंच परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है। किसी व्यक्ति विशेष का नामोल्लेख न करके तत्तद् गुणों से विभूषित यात्मामों को ही परमेष्ठी माना गया है। इससे यह सहज ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जैन धर्म में व्यक्ति-पूजा को स्थान नहीं दिया गया, अपितु वहां गुण-पूजा पर विशेष बल दिया गया है। तीर्थकर अर्हन्तों में से ही होते हैं। वे धर्म तीर्थ की पुनः स्थापना करते हैं, अतः तीर्थकर कहलाते हैं। जो
साधक किसी जन्म में ऐसी शुभ भावना करता है कि मैं जगत के समस्त जीवों का दुःख तीर्थकर धर्म नेता निवारण करूं, उन्हें संसार के दुःखों से छुड़ाकर मुक्त करूं तथा इस प्रकार को भावना के साथ है, धर्म-संस्थापक सोलह कारण भावनाओं का निरन्तर चिन्तन करे, उसे तीर्थकर नाम कर्म का बन्ध होता है महीं अर्थात् वह पागामी जन्म में अथवा एक जन्म के पश्चात् तीर्थंकर बनता है। कोई जीव उसी
जन्म में (विदेह क्षेत्र में) तीर्थंकर बनता है। वे सोलह कारण भावनाएं इस प्रकार है