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जैन धर्म
उनके पीछे वृषभ लांउन है। नीचे सात मुनि भगवान का अनुसरण करके कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानमग्न है। जो चार हजार राजा दिगम्बर मुनि बन गये थे, उन्हीं के प्रतीक स्वरूप ये सात मुनि हैं। वे भी कल्प वृक्ष के नीचे खड़े हुए हैं और उनके मुख के पास भी पत्ता हिल रहा है।
संभवतः उक्त मुहर की तर्कसंगत व्याख्या इसके अतिरिक्त दूसरी नहीं हो सकती।
इस मुहर का अध्ययन करके प्रसिद्ध विद्वान् रा० २० प्रो. राम प्रसाद चन्दा ने जो व्याख्या प्रस्तुत की, उससे इतिहास वेत्तानों को अपनी प्रचलित धारणा में संशोधन करने के लिए बाध्य होना पड़ा। प्रो. चन्दा का प्राशय इस प्रकार है
सिन्धु मुहरों में से कुछ मुहरों पर उत्कीर्ण देव-मूर्तियां न केवल योग-मुद्रा में अवस्थित हैं और उस प्राचीन यूम में सिन्ध घाटी में प्रचलित योग पर प्रकाश डालती हैं, उन मुहरों में खड़े हुए देवता योग की खड़ी मुद्रा भी प्रगट करते हैं। और यह भी कि कायोत्सर्ग मुद्रा आश्चर्यजनक रूप से जैनों से सम्बन्धित है। यह मुद्रा बैठकर ध्यान करने की न होकर खड़े होकर ध्यान करने की है। प्रादिपुराण सर्ग १८ में ऋषभ अथवा वृषभ की तपश्चर्या के सिलसिले में कायोत्सर्ग मुद्रा का वर्णन किया गया है। मथुरा के कर्जन पुरातत्व संग्रहालय में एक शिलाफलक पर जैन ऋषभ की कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी हुई चार प्रतिमायें मिलती हैं जो ईसा की द्वितीय शताब्दी की निश्चित की गई हैं । मथुरा की यह मुद्रा मूर्ति संख्या १२ में प्रतिबिम्बित है। प्राचीन राजवंशों के काल की मिश्री स्थापत्य कला में कुछ प्रतिमायें ऐसी भी मिलती हैं, जिनकी भुजाएं दोनों ओर लटकी हुई हैं । यद्यपि ये मिश्री मूर्तियां या ग्रीक कुरों प्राय: उसी मुद्रा में मिलती हैं, किन्तु उनमें वैराग्य की वह झलक नहीं, जो सिन्धु घाटी की इन खड़ी मतियों या जैनों की कायोत्सर्ग प्रतिमाओं में मिलती हैं। ऋषभ का अर्थ है दृषभ (बैल) और वृषभ जिन ऋषभ का चिन्ह है।"
–माडर्न रिव्यू, अगस्त १९३२, पृ० १५५-१६० प्रो. चन्दा के इन विचारों का समर्थन डॉ० प्राणनाथ विद्यालंकार ने भी किया है। वे भी सिन्धु घाटी में मिलीं इन कायोत्सर्ग प्रेतिमानों को ऋषभ देव की मानते हैं । इन विद्वानों ने सील नं० ४४६ पर जिनेश्वर शब्द भी पढ़ा है । हमारी विनम्र मान्यता है कि सभी ध्यानस्थ प्रतिमायें जो सिन्धु घाटी में मिली हैं, जैन तीर्थंकरों की हैं। ध्यानमग्न वीतराग मुद्रा, त्रिशूल और धर्मचक्र, पशु, वृक्ष मोर नाग ये सभी जैन कला की अपनी विशेषतायें हैं। विशेषतः कायोत्सर्गासन जो जंन श्रमणों द्वारा ध्यान के लिए प्रयुक्त होता है।
T. N. Ram Chandran का अभिमत
These two ricks place before us the truth that we are perhaps recognising in the Harappa statue a full fledged Jain Tirthankar in the characteriitic pose of physical abandon (kayotsarga).
The statue under description is therefore a splendid representative specimen of this thought of Jainism at perhaps its very inception.
___T. N. Ram Chandran Director General Indian Archeological
Department सिन्धु सभ्यता अत्यन्त समृद्ध और समुन्नत सभ्यता थी। पुरातत्ववेत्ताओं ने सिन्धु सभ्यता का जो मूल्यांकन किया है, उसके बड़े रोचक निष्कर्ष निकले हैं । डा. राधाकुमुद मुकर्जी लिखते हैं-'मुहर संख्या F. G. H. फलक दो पर अंकित देव मूर्ति में एक बल ही बना है । संभव है, यह ऋषभ का ही पूर्व रूप हो । यदि ऐसा हो तो शेव धर्म की तरह जैन धर्म का मूल भी ताम्रयुगीन सिन्धु सभ्यता तक चला जाता है।"
१. हिन्दू सम्पता, तृतीय संस्करण, पृ० ३६