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मैन धर्म ऋषियों की चिन्ता स्वाभाविक थी। अतः इस काल में दात्यों को प्रयज्यन, अन्यव्रत, अकर्मन प्रादि शब्दों द्वारा वैदिक अनुयायियों की दृष्टि में गिराने के प्रयत्न किये जाने लगे। इसी काल में प्रात्यों और वैदिक मार्यों के धार्मिक विश्वासों के आधार पर प्रादेशिक सीमायें स्थिर की गई। इतना ही नहीं, अंग-वंग-कलिंग-सौराष्ट्र और मगध में जाना निषिद्ध घोषित कर दिया गया और जाने पर प्रायश्चित्त का विधान तक किया गया। पुराणों में इस प्रकार के कल्पित कथानकों तक की रचना की गई कि एक राजा-रानी को एक वात्य (जैन) में केवल बात करने के अपराध का प्रायश्चित्त अनेक जन्म धारण करके करना पड़ा । अथवा प्राणों पर संकट आने की दशा में यदि जैन मन्दिर में जाकर प्राण-रक्षा की संभावना हो सकती है तो भी जैन मन्दिर में प्रवेश करके प्राण-रक्षा करने की अपेक्षा मृत्यु का वरण करना श्रेयस्कर घोषित कर दिया। प्रात्यों की लोक-भाषा प्राकृत को हीन घोषित करना, अथवा उसे स्त्रियों और शूद्रों की भाषा करार देना भी वात्यों के विरुद्ध वैदिक ऋषियों द्वारा मायोजित घृणा-प्रसारप्रान्दोलन का ही एक अंग रहा है।
किन्तु वैदिक ऋषियों की इस चिन्ता अथवा इस घृणा-आन्दोलन का विश्लेषण करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि उन श्रमणों और प्रात्यों-जिनकी प्रशंसा संहिता ग्रन्थों में की गई है-की कर्मकाण्ड विरोधी और अध्यात्म मूलक संस्कृति अत्यन्त सशक्त और प्रभावशाली थी। उसके प्रभाव से वैदिक संस्कृति अपना स्वरूप बदलने को बाध्य हो रही थी। उपनिषदों पर श्रमण-बात्य संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट ही था । ऐसी दशा में ही बदिक संस्कृति को बचाने की चिता वैदिक ऋषियों को करनी पड़ी। कल्पना करें, यदि उन्होंने श्रमणों-बात्यों के विरुद्ध ये षणा की दीवारें खड़ीन की होती और ये घणा-पान्दोलन न चलाये जाते तो भारतीय संस्कृति का वह रूपन होता जोमान दिलाई है, प्रथमा बैदिक संस्कृति शुष्क कर्मकाण्ड और भौतिकवाद की दलदल से निकलकर शुद्ध अध्यात्म प्रधान संस्कृति का रूप ग्रहण कर लेती।
जैन अर्थ में श्रमण और खात्य शब्दों के समान पाहत शब्द का प्रयोग भी अत्यन्त प्राचीन काल से होता पाया है। संभवतः पौराणिक काल में इस शब्द का प्रयोग खुलकर होने लगा था । श्रीमदभागवत का प्रयोग कई स्थानों पर हना है । एक स्थान पर भगवान ऋषभदेव के सन्दर्भ में लिखा है-'तपाग्नि से कर्मों
को नष्टकर वे सर्वज्ञ 'महत' हए और उन्होंने 'माहत मत का प्रचार किया। विष्णपुराण माहंत में देवासुर संग्राम के प्रसंग में मायामोह का उल्लेख करते हुए लिखा है-'माया मोह ने
असुरों में 'आहत' धर्म का प्रचार किया। वह माया मोह एक दिगम्बर मुनि के रूप में चित्रित किया गया है। हिन्दू 'पद्म पुराण' में इस माया मोह की उत्पत्ति बृहस्पति की सहायता के लिये विष्णु द्वारा बताई गई है । इस मुंडे सिर और मयूर पिच्छिकाधारी योगी दिगम्बर मायामोह द्वारा दैत्यों (असुरों) को जैन धर्म का उपदेश और उनके द्वारा जैन धर्म में दीक्षित होने का स्पष्ट उल्लेख है । 'मत्स्य पुराण' में बताया है कि अहिंसा ही परम धर्म है, जिसे पहन्तों ने निरूपित किया है ।
इस प्रकार विभिन्न हिन्दू पुराणों में 'पार्हतमत' प्रौर अर्हन्तों का उल्लेख मिलता है।
संक्षेप में श्रमण, व्रात्य, प्राईत, जैन इन शब्दों का प्रयोग समान अर्थ में हुमा है । वैदिक ग्रन्थों में वातरपाना, ऊध्यरेता, ऊर्ध्वमन्थी शब्दों का प्रयोग भी श्रमण मुनियों के लिए ही हुमा है । जहाँ भी इन पाम्दों का प्रयोग छुपा है, वह प्रत्यन्त सम्मान पूर्ण प्राशय से ही हुआ है।
इतिहासकार मौर पुरातत्ववेत्ता अब इस बात को स्वीकार करने लगे हैं कि भारत में वैदिक सभ्यता का जब प्रचार प्रसार हुमा, उससे पहले यहाँ जो सभ्यता थी, वह प्रत्यन्त समृद्ध पौर समुन्नत थी। प्राग्वैदिक काल
का कोई साहित्य नहीं मिलता। किन्तु पुरातत्व की खोज़ों पौर उत्खनन के परिणामस्वरूप पुरातत्व और नये तथ्यों और मूल्यों पर प्रकाश पड़ा है । सन् १९२२ में पौर उसके बाद मोहन-जो-दड़ो और प्राधिक संस्कृति हड़प्पा की खुदाई भारत सरकार की मोर से की गई थी। पश्चिमी पाकिस्तान में सिन्ध प्रान्त १. श्रीमद्भागवत ।
१. मत्स्य पुराण अध्याय २४ २. विष्णुपुराण अध्याय १५-१६