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बन धर्म
का ज्ञान नहीं था। प्रात्मविद्या के जानकार केवल क्षत्रिय श्रमण ही होते थे, वैदिक ऋषियों के लिये प्रात्मविद्या अज्ञात थी। श्रमण जैन परम्परा की यह मान्यता कि सभी तीर्थकर केवल क्षत्रिय ही होते हैं, हमारी इस धारणा को पुष्ट करती है कि श्रमण परम्परा क्षत्रियों की परम्परा रही है।
श्रीमद्भागवत में श्रमणों की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि जो वातरशन ऊर्ध्वमन्थी श्रमण मुनि हैं, वे शान्त, निर्मल, सम्पूर्ण परिग्रह से सन्यस्त ब्रह्म पद को प्राप्त करते हैं।'
श्रमणों को उपर्युक्त पहचान वस्तुतः सही है । इसलिये निघण्टु को भूषण टीका में श्रमण शब्द की व्याख्या इस रूप में की है--
'श्रमणा दिगम्बराः श्रमणा वासरशनाः।। श्रीमद्भागवत ११।२ में उपर्युक्त व्याख्या का ही समर्थन इस प्रकार किया गया है श्रमणा वातरशना मात्मविद्या विशारदाः।
श्रमण दिगम्बर मुनि होते थे। उन मुनियों को ही भागवतकार ने ऊर्ध्वरेता, वातरशना, आत्मविद्या में विशारद बतलाया है।
भागवतकार ने स्कन्ध १२ अध्याय ३ श्लोक १८-१९ में श्रमणों की जो प्रशंसा की है, वह उनके उच्च प्राचार-विचार की द्योतक है । महर्षि शुकदेव राजा परीक्षित को उपदेश देते हुए कहते हैं
कृते प्रवर्तते धर्मश्चतुष्पातज्जनधतिः ।। सत्यं क्या तपो दानमिति पावा विभो ॥ सन्तुष्टा करुणा मंत्राः शान्ता बाम्सास्तितिक्षवः ।
प्रात्मारामाः समशः प्रायशः श्रमणा जनाः ॥ अर्थात् हे राजन! कृतयुग (सतयुग) में धर्म के चार चरण होते हैं--सत्य, दया, तप और दान । इस धर्म को उस समय लोग निष्ठापूर्वक धारण करते हैं। सतयुग में प्रायः श्रमण हो सन्तुष्ट, करुणाशील, मैत्रीपरायण, शान्त, इन्द्रियजयी, सहनशील, आत्मा में रमण करने वाले और समदृष्टि बाले होते हैं।
इस प्रकार के दिगम्बर श्रमणों का उल्लेख अति प्रचीन काल से होता आया है। ऋग्वेद १०९४|११ में श्रमणों का सर्व प्रथम उल्लेख मिलता है। रामायण (बाल्मीकि) में भी अनेक स्थलों पर श्रमणों का उल्लेख बड़े सम्मान के साथ किया गया है। रामचन्द्रजी ने जिस शबरी का आतिथ्य ग्रहण किया था, वह श्रमणी पी (श्रमणी शवरी नाम श्रमणा श्रमणोत्तमा)। राजा जनक जिस प्रकार तापसों को भोजन कराते थे, श्रमणों को भी वैसे ही कराते थे (तापसा भुजते चापि श्रमणाश्चैव भुजते)
इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रमण दिगम्बर निन्थ मुनियों को कहा जाता था। भारत में श्रमणों का अस्तित्व अति प्राचीन काल से पाया जाता है। श्रमण प्रात्मविद्या में पारंगत थे। वैदिक ऋषि उनसे आत्मविद्या सीखते थे। डा. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार 'श्रमण परम्परा के कारण ब्राह्मण धर्म में वानप्रस्थ और सन्यास को प्रश्रय मिला।
प्राचीन काल में जनों को हो श्रमण कहा जाता था । प्राचीनतम भारतीय साहित्य में श्रमणों के उल्लेख मिलते हैं।
वैदिक ग्रन्थों में जैनधर्मानुयायियों को अनेक स्थलों पर व्रात्य भी कहा गया है। व्रतों का माचरण करने के कारण वे व्रात्य कहे जाते थे । संहिता-काल में प्रात्यों को बड़े सम्मान को दृष्टि से देखा जाता था । संहितामों में
खात्यों के लिये बड़े आदरसूचक विशेषणों का प्रयोग किया गया है। जब तक वैविक मार्य प्रात्यों के निकट सम्पर्क में नहीं पाये थे और उनके साथ वैदिक आर्यों को निरन्तर संघर्ष
करना पड़ा था, उस समय ऋग्वेद में जो मंत्र लिखे गये, उनसे ज्ञात होता है कि कोकट (मगध) देश का राजा प्रमंगदपा। वह वात्य था। उसके राज्य में प्रात्यों के पास अपार घन, गायें और वैभव था। १. प्राक्कथन जैन साहित्य का इतिहास, पृ० १३