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जैन धर्म
मुक्त हो जाते हैं, तब वे सिद्ध या निकल अर्थात् अशरीरी परमात्मा कहलाने लगते हैं। फिर उनका जन्म-मरण नहीं होता। उन्हें शरीर नहीं धारण करना पड़ता । उनके सम्पूर्ण विकार, समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं और आत्मा का मनन्त जान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य आदि सहज और वास्तविक स्वरूप प्रगट हो जाता है । वे अपने इसी स्वरूप में स्थित रहते हैं।
'जिन' को ही सम्मानसूचक अर्थ में जिनदेव', जिनेश्वर, जिनेन्द्र आदि शब्दों द्वारा व्यवहृत किया जाता है। प्राशय की दृष्टि से इन शब्दों में कोई अन्तर नहीं है । इन्हीं को पूज्य अर्थ में महत्, अर्हन्त, अरिहन्त अथवा
अरहन्त भी कहा जाता है। प्ररहन्त शब्द में शब्दार्थ की दृष्टि से यह भी प्राशय निगढ़ है कि जिनदेव द्वारा उन्होंने प्रात्मा के जो विषय, कषाय अथवा कर्म शत्रु थे, उन्होंने इन सबका नाश कर दिया। उपविष्ट मार्ग हो विषय और कषाय प्रात्मा की सहज स्वाभाविक परिणति नहीं है, ये तो वैभाविक-विकारी परिजैन धर्म जमा । दम नावनात्मक विकारों को प्रात्मा में से निर्मूल कर दिया, उनको जीत लिया है।
इसी प्राशय में कहा जाता है कि उन शत्रुओं का नाश कर दिया है। विषय और कषाय रूप विकृतियों को ही राग-द्वेष कहा जाता है। इन राग-द्वेष रूप विकृतियों को जीतकर ही वीतराग और जिन बनते हैं।
उन वीतराग जिन ने प्रात्म-विजय का जो उपदेश दिया, जो राह बताई, उसका एक निश्चित रूप तो है, किन्तु नाम कुछ नहीं है। किन्तु लोक में व्यवहार के लिए, सुविधा के लिये उसका एक नाम रख लिया। वह 'जिन' का धर्म था, अतः 'जिन' का धर्म जैन धर्म' कहलाने लगा । यहीं यह समझ लेना रुचिकर होगा कि 'जिन' किसी अमुक व्यक्ति का नाम नहीं है, यह तो एक पदवाचक शब्द है । जिसने भी प्रात्म-विजय की है, वहीं जिन कहलाने लगा। चंकि यात्म-विजय करने वाला वीतराग होता है, इसलिये उन्होंने प्रात्म-विजय के लिये जिस धर्म का उपदेश दिया, वह धर्म भी वीतराग धर्म है। उसका प्रारम्भ अथवा उसको स्थापना किसी व्यक्ति विशेष ने नहीं की, इसलिये जैनधर्म का प्रारम्भ किसी काल-विशेष में नहीं हुआ। वह तो पात्म-विजय की चिरन्तन राह है; वह तो प्रात्मा के सच्चिदानन्द रूप की प्राप्ति की सार्वदेशिक और सार्वकालिक जीवन-पद्धति है। यह तो वह जोवन-दर्शन है, जिस पर चलकर 'जिनों ने प्रात्म-विजय की है और भविष्य में भी जो प्रात्म-विजय करेंगे, वे इसी राह पर चलकर ही करेंगे । इसलिये कहना होगा कि जैन धर्म वस्तुतः शाश्वत सत्य है । आज धर्म सम्प्रदाय के अर्थ में व्यवहृत होने लगा है । किन्तु जैन धर्म सम्प्रदाय नहीं, किन्तु यह तो प्रात्मा के लिये है, प्रात्मा द्वारा प्राप्त किया जाता है, प्रात्मा में प्रतिष्ठित होता है । इसलिये इसे प्रात्म-धर्म कहना तथ्य को स्वीकार करना होगा । सुविधा के लिये इसे हम जिनधर्म, जैनधर्म, आर्हत धर्म कह सकते हैं और चाहें तो इसे निज धर्म भी कहा जा सकता है।
उपर्युक्त सन्दर्भ में यह बात विशेष महत्त्वपूर्ण है कि प्राचीन साहित्य में जैनधर्म का नामोल्लेख नहीं है । इससे उन लोगों का तर्क स्वयं खण्डित हो जाता है, जो यह कहते हैं कि जैनधर्म का उदय तथाकथित ऐतिहासिक
काल की उपज है अथवा यह कि जैनधर्म की स्थापना पार्श्वनाथ पथवा महापौर ने की या यह प्राचीन साहित्य में कि जैनधर्म ब्राह्मण धर्म की हिंसामूलक यश-परम्परा को प्रतिक्रिया स्वरूप अस्तित्व में जैनधर्म का नामोल्लेख पाया । वस्तुतः जैनधर्म प्रात्म-दर्शन के रूप में उस समय से प्रतिष्ठित रहा है, जबसे प्रारम
विजय की प्रवृत्ति का प्रारम्भ हुमा है । वेदत्रयो के परवर्ती साहित्य में जिन और जैन मत के स्पष्ट उल्लेख होने लगे थे। संभवतः इस काल में प्राकर लोग इस धर्म को जनधर्म और उसके पुरस्कर्ताओं को 'जिन' नाम से व्यवहत करने लगे थे। योगवाशिष्ठ,' श्रीमद् भागवत, विष्णपुराण, शाकटायन व्याकरण, पद्मपुराण, १. योगवाशिष्ठ प्र. १५ श्लोक, २. बीमवभागवत शर ३. विष्णुपुराण २१ ४. शाकटायन-अनादि सूत्र २८६ पाव ३ १. पद्म पुराण (व्यंकटेया प्रेस) १०२