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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
मत्स्यपुराण' आदि में जिन, जैनधर्म आदि नामों से उल्लेख मिलता है। प्राचीन साहित्य में जैनधर्म के लिये श्रमण शब्द का भी प्रयोग मिलता है । अतः श्रमण क्या है, इस पर विचार करना मावश्यक है। भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति कही जाती है। भारतीय संस्कृति पावनतोया गंगा है।
उसमें दो महान नदियाँ आकर मिली है--श्रमण और वैदिक । इन दोनों के संगम से भारतीय संस्कृति की दो विशाल भारतीय संस्कृति की गंगा बनी है। न अकेली श्रमण धारा को हम भारतीय धाराएं-श्रमण और वैदिक संस्कृति कह सकते हैं और न अकेली वैदिक धारा को हम भारतीय सं
नाम दे सकते हैं। ये दोनों धाराएं परस्पर विरोधी लगती है, किन्तु दोनों ने मिलकर ही भारतीय संस्कृति का निर्माण किया है।
दोनों धारामों की भी अपनी अपनी संस्कृति रही है । उन दोनों संस्कृतियों के अन्तर पर प्रकाश डालते हुए सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री मंगलदेव शास्त्री ने लिखा है
"मुनि शब्द के साथ ज्ञान, तप और वैराग्य जैसी भावनाओं का गहरा सम्बन्ध है । मुनि शब्द का प्रयोग वैदिक संहितामों में बहुत ही कम हुआ है । श्रमण संस्कृति में हो यह शब्द अधिकांशतः प्रयुक्त है। पुराणों में जो वैदिक तथा वैदिकेतर धाराप्नों का समन्वय प्रस्तुत करते हैं, ऋषि और मुनि दोनों शब्दों का प्रयोग बहुत कुछ मिले जुले पर्थ में होने लगा था। दोनों संस्कृतियों में ऐतिहासिक विकास क्रम की दृष्टि से भिन्नता है। ऋषि या वैदिकी संस्कृति में कर्मकाण्ड की प्रधानता और असहिष्णुता की प्रवृत्ति बढ़ी तो श्रमण संस्कृति या मुनि संस्कृति में अहिंसा, निरामिषता तथा विचार सहिष्णुता की प्रवृत्ति दिखाई पड़ी"।
श्रमण और वैदिक संस्कृति के अन्तर को संक्षेप में समझने के बाद यह समझना मावश्यक है कि श्रमण का मर्थ या प्राशय क्या है ?
दशवकालिक सूत्र १७३ की टीका में प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने घमण शब्द की व्याख्या इस प्रकार की हैश्राम्यन्तीति श्रमणाः तपस्यन्ते इत्यर्थः ।' अर्थात जो श्रम करता है, कष्ट सहता है, तप करता है वह श्रमण है। श्रमण शब्द की इस व्याख्या में ही श्रमण संस्कृति का आदर्श अन्तनिहित है। जो श्रम करता है, तपस्या
गरता है और पुरुषार्थ पर विश्वास करता है, वहीं श्रमण कहलाता है । अपने पुरुषार्थ श्रमण संस्कृति पर विश्वास करने वाले और पुरुषार्थ द्वारा प्रात्म-सिद्धि करने वाले क्षत्रिय होते हैं। इसलिये
कहना होगा कि श्रमण संस्कृति पुरुषार्थमूलक क्षत्रिय संस्कृति रही है। प्राचीन वैदिक साहित्य में-विशेषत: वेदों में याझिक कर्मकाण्ड द्वारा विभिन्न देवताओं को प्रसन्न करने और उनसे सांसारिक याचना करने के विधान पाये जाते हैं। याचना करना ब्राह्मणों का धर्म है। प्रतः यह कहा जा सकता है कि वैदिक संस्कृति ब्राह्मण संस्कृति है । इसीलिये इस संस्कृति में ब्राह्मणों को ही सर्वाधिक गौरव प्रदान किया गया है। यह संस्कृति परम्परामूलक रही है।
हमारी इस मान्यता का समर्थन वैदिक साहित्य से भी होता है । तैत्तिरीय आरण्यक में (२ प्रपाठक अनुवाक १-२) में वर्णन पाया है कि
"वातरशन श्रमण ऋषि ब्रह्मपद की ओर उत्क्रमण करने वाले हए। उनके पास अन्य ऋषि प्रयोजनवश उपस्थित हुए। उन्हें देख कर ऋषि कहीं अन्तहित हो गये । वे वातरशन कुष्माण्ड नामक मंत्र वाक्यों में अन्तहित थे। तब उन्हें अन्य ऋषियों ने श्रद्धा और तप से प्राप्त कर लिया। ऋषियों ने उन बातरशन मुनियों से प्रश्न किया—'किस विद्या से प्राप अन्तहित हो जाते हैं। वातरशन मुनियों ने उन्हें निलय आये हुए मतिथि मानकर कहा-'हे मुनिजनो! प्रापको नमोऽस्तु है। हम आपका सत्कार किससे करें?' ऋषियों ने कहा-'हमें पवित्र प्रात्मविद्या का उपदेश दीजिये जिससे हम निष्पाप हो जायं।'
इस उल्लेख से स्पष्ट है कि श्रमण मुनि पात्म विद्या में निष्णात थे, जबकि वैदिक ऋषियों को प्रात्मविद्या
१. मत्स्म पुराण प्र० २४ बलोक ४४-५५