Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 18
________________ जैन धर्म घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पांचों इन्द्रियाँ पौर मन पुद्गल की रचना हैं । इनकी संचालक शक्तियाँ मात्मा का पुद्गल अर्थात् अनात्मा के साथ सम्पर्क की परिणाम हैं । लासनात्मा की आम से सोचता है, उसी पर विश्वास करता है और उसी के सहारे कार्य करता है। प्रात्मा की यह असहाय स्थिति ही उसके सारे दुःखों के की मूल प्रात्मा जब बहुत दुखी होता है तो वह इस असह्य स्थिति से छुटकारे का प्रयत्न करता है, कभी छुटकारे की भावना उसके अन्दर जागने लगती है। इस प्रकार की स्थिति कभी-कभी सत्संगति पाकर होती है, कभी सन्तों-मुनियों की अमृतवाणी सुनकर होती है, कभी सत् शास्त्र प्रात्म प्रौर पनाम का अध्ययन-मनन करने पर होती है और कभी संसार के दुःखों से मुक्त होने का प्रयत्न करने का चिरकालिक संघर्ष वाले अथवा मुक्त हुए महापुरुषों के जीवन से प्रेरित होकर होती है। किन्तु इस प्रकार की स्थिति प्रायः अल्पकालिक होती है। अधिकांशतः तो वह पौद्गलिक संरचनामों के प्रति प्रासक्ति और उनके प्रति विभिन्न प्रकार के मानसिक द्वन्द्रों से अभिभूत ही बना रहता है । यह मासक्ति ही विषय और मानसिक द्वन्द्व ही कषाय कहलाते हैं । इन्द्रियों की अपने भोगों के प्रति आसक्ति ही विषय कहलासे हैं। दूसरों को लेकर मन में क्रोध, अहंकार, माया और लोभ की जागृति कषाय कहलाती है। वस्तुतः प्रात्मा अपने भीतर के इन विषयकषायों को लेकर ही दुखी रहता है। दूःख विषय-कषाय का परिणाम मात्र है, विषय-कषाय तो स्वयं दुःख रूप हैं। ये तो ऐसी पाग है जो प्रात्मा के सम्पूर्ण गुणों को, शान्ति एवं सुख को भस्म कर देती है। ये तो ऐसी अमर बेल हैं कि ये जिस आत्मा के सहारे उगती हैं, उसी का रस पी-पीकर बढ़ती जाती हैं । ये तो ऐसे विष-वृक्ष हैं कि एक बीज बोकर हजारों विष-फल लगते हैं। प्रारमा अपने भीतर इन्हीं विष-बीजों को बोती रहती है और जब इसके विष वृक्ष बड़े होते हैं मोर उन पर विष-फल लगते हैं तो उन्हें खाकर निरन्तर बिलोबलाता और छटपटाता रहता है। कौन प्रात्मा है जो सुख नहीं चाहता । किन्तु कितनी प्रात्मा हैं जो इन विषय और कषायों से मुक्त होने का प्रयत्न करती हैं। संसार की अधिकांश प्रात्मायें तो यह भी नहीं जानती कि विषय-कषाय प्रात्मा के शत्रु हैं या ये आत्मा का अहित करते हैं। ये आत्मायें तो घोर प्रज्ञानान्धकार में भटक रही हैं । वे दुःख का सही निदान नहीं जानती, फिर दुःख से उनका छुटकारा कैसे हो । शेष आत्मायें-जिनकी संख्या अत्यल्प है-यह जानती हैं कि प्रात्मा के शत्र केवल मेरे अपने ही विषय-कषाय है। जानती तो हैं किन्तु इसे मानती नहीं हैं, सुनकर-पढ़कर जान किन्तु उनकी मान्यता (विश्वास) और आचरण उन आत्माओं जैसा है, जो अज्ञान के कारण जानती तक नहीं। जानती हैं, किन्तु मानती नहीं, क्योंकि उन्हें पुद्गल के प्रति मोह है, उन्हें अपने प्रति प्रास्था नहीं, उनकी प्रास्था पुद्गल के प्रति है । प्रास्था अपने प्रति हो तो उनके भीतर आत्मा के सच्चिदानन्द रूप को पाने की ललक भी जागे । इसलिये उनका जानना भी निरर्थक हो जाता है। आत्मा ही हैं जो इस तथ्य को जानती हैं, इसे मानती भी हैं और उसके लिये अपने आचरण में सुधार भी करती हैं। इस प्रकार वे ज्ञान-दर्शन और चारित्र की समन्वित एकता के द्वारा प्रज्ञान मोर मोह से संघर्ष करती हैं। पुद्गल उन्हें बलात् पथभ्रष्ट नहीं करता, उनको पथभ्रष्ट करने की सामर्थ्य तो उनके अपने भीतर के प्रज्ञान और मोह नामक विकार में हैं। ये अनादिकालीन संस्कार क्षण भर में दूर नहीं हो पाते। सत्य संकल्प का संबल लेकर इनसे संघर्ष करने का पुरुषार्थ जगाना पड़ता है। संकल्प और पुरुषार्थ में जितना तेज और बल होगा, मुक्ति' की राह उतनी तीव्रता और शीघ्रता से तय होती जायगी । यह तथ्य सदा स्मरण रखना होगा कि 'प्रात्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:' अर्थात् स्वयं प्रात्मा ही अपना शत्रु है और पात्मा स्वयं अपना मित्र है । इस तत्व-दर्शन में पभाव-अभियोगों को कोई अवकाश नहीं है। यह तो मात्मा की अनन्त सामर्थ्य के प्रति अडिग पास्या का लौह-लेख है। पज्ञान और मोह मात्मा की निर्बलता के प्रमाण-पत्र हैं। इन प्रमाण-पत्रों को नष्ट कर ही पात्मा को शुचिता के दर्शन होते हैं। यह तो आत्मा का सम्पूर्ण अनारम के प्रति--चाहे वह प्रात्मा का प्रशान और मोहरूप विकार हो, चाहे पुद्गल की संरचना हो-संघर्ष की उद्घोषणा है और उस प्रारभ-अनात्म के संघर्ष में प्रारमा की विजय की स्वीकृति है। मात्मा मज्ञान, मोह पयवा भ्रम के कारण मनात्म पुद्गल के प्रति अपनत्व का माता जोड़ लेता है। इस

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