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चौथा अध्याय
विद्वान भी पुराने कानूनों के अनुसार वकालत करते रहे परन्तु सच्चे कानूनों की रचना न कर सके ।
जैनधर्म सरीखा तार्किक धर्म भी अन्त में इसी झमेले में पड़ गया है । जैनशास्त्राने वास्तविक सर्वज्ञता के प्रश्नको झमेले में डाल दिया है और अनेक मिथ्या कल्पनाएँ करके सत्यको बहुत नीचे दबा दिया है, फिर भी दिगम्बर श्वेताम्बर शास्त्रों में इस विषय में इतनी अधिक सामग्री है कि वास्तविक सत्य ढूँढ़ निकलना कठिन होने पर भी अशक्य नहीं है । यहाँ तो मैंने सर्वज्ञता के इतिहास का रेखाचित्र दिया है, जिससे पाठकों को अगली बात समझने में सुभीता हो ।
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युक्ति विरोध
जैनशास्त्रों का आधार लेकर विचार करने के पहिले यह देखना चाहिये कि युक्तियों की दृष्टिसे सर्वज्ञता की प्रचलित मान्यता क्या सम्भव है ? जैनियों की वर्तमान मान्यता है कि " त्रिकाल त्रिलोक ( अलोक सहित ) के समस्त पदार्थों का सर्वगुण पर्यायांसहित युगपत् प्रत्यक्ष केवलज्ञान है " परंतु ऐसा केवलज्ञान सम्भव नहीं है । इसके कई कारण हैं
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१ - अनन्त का प्रत्यक्ष असम्भव
जैसा ऊपर बतलाया गया है वैसा अनन्त का प्रत्यक्ष असम्भव है । क्योंकि जो अनन्त है उसका एक प्रत्यक्ष में अन्त कैसे आसकता है और जबतक किसी चीज का अन्त न जानलिया जाय तबतक वह पूरी जानली गई यह कैसे कहा जासकता है ? वस्तुको अगर