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चौथा अध्याय
भी भाव न मिला । परन्तु दिगंबर कहते हैं कि कोई गणधर न होने से महावीर स्वामी छपन दिन तक मौन रहे: क्योंकि उनकी दिव्यध्वनि का अर्थ लोगों को समझा कोन ? केवलज्ञानी तो किसी के साथ बातचीत या प्रश्नोत्तर कर नहीं सकता 1 अन्त में बेचारे इंद्रको चिन्ता हुई । वह किसी प्रकार गौतम को वहाँ लाया । मानस्तम्भ देखते ही इन्द्रभूति का मान गलगया; बिना किसी बातचीत के गौतम गणधर बन गये, आपसे आप उन्हें न्यार पैदा हो | तब दिव्यध्वनि खिरी, आदि ।
अब दूसरी तरफ देखिये । एक प्रश्न यह उठा कि बिना इच्छा और विशेष उपयोग के भगवान ओष्ठ जीभ तालु आदि कैसे चलायगे ? तो कहा गया कि भगवान् मुँह से नहीं बोलते किन्तु सर्वांग से वाणी खिरती हैं । श्रोताओं के पुण्य के द्वारा उनके सर्वांग से मृदंग की तरह आवाज निकलती है । फिर शंका हुई कि भगवान बिना किसी विशेष उपयोग के खास जगह जायगे कैसे? तो उत्तर मिला कि वे तो पद्मासन लगोये आपसे आप उड़ते जाते हैं।
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.: इस प्रकार सर्वज्ञता की कल्पनाने इतना गोरखधंधा दिया है कि जिसमें से निकलना असंभव हो गया है । अन्त में
जान बचाने के लिये : अन्वश्रद्धापूर्ण अतिशयों की कल्पना करके
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किसी तरह से संतोष किया गया है। कुछ का परिचय मैं दूसरे दे चुका हूँ। कुछ की आलोचना अगे
करूंगा । यहाँ
तो सिर्फ रेखाचित्र दिया गया है ।