Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ लल्लिग बहुत धनवान् बन गया। इस लल्लिग ने आचार्य श्री के ग्रन्थों की प्रतिकृति करवा कर उसका बहुत प्रचार किया तथा इस लल्लिग ने ही उपाश्रय में एक ऐसा रत्न लाकर रखा जिससे दीपक के समान जाज्वल्यमान प्रकाश होता था। आचार्य श्री उस प्रकाश में रात्रि में भी ग्रन्थ रचना करते थे। लल्लिग श्रावक जिस समय आचार्य गोचरी करते थे उस समय शंखनाद करके सभी याचकों को एकत्रित कर भोजन करवाते थे। याचक भी आचार्य श्री को नमस्काकर करके "भव विरह हो" का आशीर्वाद लेकर "भव विरहसूरि चिरंजीवोः" ऐसा बोलकर चले जाते थे इससे उनका "भव-विरह" अपर नाम भी है।१८ भव-विरहसूरि भगवान् महावीर के शासन के अन्तिम श्रुतधर है। आज के विद्वानों में वैसा सामर्थ्य नही. है कि उनको समझ सके। "प्रबन्ध कोश" में आचार्य हरिभद्रसूरि की जीवन झलक। आ. राजशेखरसूरि द्वारा रचित “प्रबन्ध-कोश' में अन्य ग्रन्थों से जो विशेषता है वह यहाँ प्रदर्शित की जा रही है। आचार्य हरिभद्रसूरि के शिष्य हंस और परमहंस विशेष बौद्ध ग्रन्थ का अध्ययन करने के लिए बौद्धाचार्य के मठ में गये और वहाँ उनके वेश में अध्ययन करने लगे प्रतिलेखना आदि संस्कारवश उन्हें दयालु के समान जानकर गुरू ने विचार किया कि ये दोनों निश्चित श्वेताम्बर जैन होने चाहिए। बौद्धाचार्य ने अरिहंत प्रतिमा चित्रित करवा कर उनकी परीक्षा ली, लेकिन उन्होंने मूर्तिपर पैर नहीं रखा यह बौद्धाचार्य ने जान लिया / वे दोनों सावधान हो गये और जठर पीडा का बहाना बनाकर कपालिका लेकर वहाँ से बाहर निकल गये, बहुत समय हो जाने पर भी उनको आये हुऐ नहीं देखा, तब बौद्धाचार्य ने राजा को कहा- 'कपट निपुण श्वेताम्बर तत्त्व लेकर चले गये। किसी भी तरह उन कपालिका को लाओ। राजा ने थोडा सैन्य उनके पीछे भेजा, वे दोनों सहस्त्रयोद्धा थे / अत: उन दोनों ने राज्यसैन्य को हत-प्रहत कर दिया। उद्धत कोई भागकर राजा के समीप जाकर उनके तेज के विषय में कहा / राजा ने पुन: बड़ा सैन्य भेजा / दृष्टि मिलाप हुआ उन दोनों में से एक युद्ध करता रहा और दूसरा कपालिका लेकर भाग गया। हंस का शिरच्छेद-राजा को दिखाया, और राजा ने गुरू को दिया। गुरू ने कहा इससे क्या? कपालिका मंगवाओ / भट वहाँ से गये। रात्रि में जब परमहंस चित्रकूट पहुँचा तब कोट के दरवाजे बंद हो गये थे, अत: वह बाहर सोया हुआ था, भटों ने सोये हुए परमहंस के शिर को काटकर गुरू को अर्पित किया, तब बौद्धों आचार्य को संतोष हुआ।१९ प्रात: काल जब आचार्य हरिभद्रसूरि ने शिष्य के कबन्ध को देखा तो क्रोध से तमतमा उठे, और बड़ेबड़े तैल के कडाह करवाये और अग्नि से तैल को तपाया गया। 1440 बौद्धों को तैल में डालने के लिए आकाशमार्ग से आकर्षित किये। गुरूने यह वृतान्त जानकर प्रतिबोध के लिए दो साधुओं को तीन गाथाएँ देकर भेजा। "1440 बोद्धा होतुं खे आकृष्टा।"२० | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII प्रथम अध्याय