________________ कहते है। इसी का नाम अनुभाग अथवा अनुभाग बन्ध है। जैसा कि उमास्वाति म. ने तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है। विपाकोऽनुभावः / 269 - वि शब्द का अर्थ है विविध अनेक प्रकार का और पाक शब्द का अर्थ परिणाम या फल / बंधे हुए कर्मों का फल अनेक प्रकार का हुआ करता है। अतएव उसको विपाक कहते है। तथा सभी जीव पूर्वकृत कर्मों के फल-विपाक को प्राप्त करते है। ज्ञानावरण आदि आठों कर्म स्व-स्वभाव के अनुसार उदय काल में अपना विपाक दिखाते है। सामान्य रूप से देखा जाय तो विपाक हेय है। लेकिन विशेष की अपेक्षा से यहाँ विपाक कथंचिद् शुभ रूप भी है और कथंचिद् अशुभ रूप भी / इसीलिए उनकी अनुभाग शक्ति को विपाक की दृष्टि से पुण्य और पाप दो भागों में विभक्त की जा सकती है। दान, शील, मंदकषाय, सेवा, परोपकार आदि शुभ परिणामों से जिन कर्मों में शुभ अनुभाव विपाक प्राप्त होता है / उन्हें पुण्य कर्म तथा मदिरा-पान, मांस-भक्षण, कूड-कपट आदि अशुभ परिणामों से जिनका उत्कट अशुभ अनुभाव प्राप्त होता है उन्हें पापकर्म कहते है। पुण्यकर्मों का सुख और पापकर्मों का दुःख रूप विपाक होता है। सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णा फला भवन्ति। दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णा फला भवन्ति // 270 दर्शनान्तरों ने भी कर्मों के विपाक को स्वीकारा है। ते ह्लादपरितापफलाः पुण्यापुण्यहेतुत्वाद् / 271 वे (जाति आयु तथा भोग) पुण्य और अपुण्य के कारण सुख-फल तथा दुःख-फल है। दुःख के हेतु अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश है। अतः जो कर्म अविद्या आदि के विरुद्ध होते है या जिनके द्वारा वे क्षीण होते है वे पुण्यकर्म कहलाते है। जिन कर्मों द्वारा अविद्या आदि अपेक्षाकृत क्षीण हो जाते है वे भी पुण्य कर्म कहलाते है और अविद्या के पोषक कर्म अपुण्य या अधर्म कर्म होते है।२७२ धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध ये दस धर्म, कर्म के रूप से गणित होते है / 273 मैत्री तथा करुणा और तन्मूलक परोपकार दान आदि भी अविद्या के कुछ विरोधी होने के कारण पुण्य कर्म होते है। क्रोध, लोभ और मोहमूलक हिंसा तथा असत्य इन्द्रियलौल्य आदि पुण्य विपरीत कर्म-समूह को पाप कर्म कहा जाता है। गौडपादजी कहते है कि यम-नियम, दया और दान ये धर्म या पुण्य कर्म है।७४ अशुभ कर्मों की विपाक शक्ति के तारतम्य की अपेक्षा से चार भेद हो जाते है। लता, दारु, अस्थि और शैल। अर्थात् लता आदि में जैसे उत्तरोत्तर अधिकाधिक कठोरता है वैसे ही उनकी विपाक शक्ति में उत्तरोत्तर तीव्रता समझना चाहिए। लेकिन शुभ-कर्मों की विपाक शक्ति पुण्य और अशुभ कर्मों की विपाक शक्ति पाप ऐसी पुण्य-पाप रूप से शक्ति दोनों प्रकार की होती है। इसीलिए उन दोनों प्रकारों में भी प्रत्येक के चार-चार भेद | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIII पंचम अध्याय | 369