Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ अहिंसक जीवन में बौद्ध समुदाय के प्रति हिंसा के आशय को प्रायश्चित्त रूप में परिवर्तित करते हुए 1444 ग्रन्थों का प्रणयन किया। याकिनी महत्तरा के आशयों को गुरुवर जिनभट्ट के सदाशयों को सम्मान देते हुए अपने वैर के प्रतिशोध रूप में 1444 ग्रन्थों की रचना की। आचार्य हरिभद्र कृतज्ञता के प्रतीक थे। उन्होंने याकिनी महत्तरा के धर्म पुत्र बनकर उनके अविस्मरणीय जननीत्व को प्रसिद्ध किया। प्रत्येक ग्रन्थ की प्रशस्ति में अपना आत्म परिचय ‘याकिनी महत्तरा सूनु' के रूप में प्रख्यात बनाया। प्रसव पीडा का माँ को अनुभव नहीं कराया और पुत्र प्रशंसा का पारितोषिक देने में प्राज्ञ रहे। - कृतियों में जो व्यक्तित्व को झलकाये वही तो विद्यवान् है। यही आचार्य हरिभद्र का आदर्श रहा। समस्त दर्शनों के अवगाहन करने पर भी अपने अस्तित्व को जैन दर्शन से शोभायमान रखा। अनेकान्तवाद अणगारों का उद्देश्य रहा है, परन्तु एकान्तवाद के उचित अनुशीलन बिना अनेकान्तवाद आभासित नहीं बनता। आचार्य हरिभद्र विद्या वाङ्मयी की वसुधा पर कल्पतरु बनकर अन्त तक कोविद रहे। अनेक विरोधों के वैमनस्य में न डूबकर समन्वयवाद का शंख बजाते रहे। आचार्य हरिभद्र की लेखनी में कपिल, पतञ्जली जैसे अन्य दार्शनिकों को भी महात्मा पद से सम्बोधित किया है। यह उनकी उदारता का प्रतीक है। ज्ञान के आशय से इतने गम्भीर और गौरववान् थे कि अन्य दार्शनिकों के मन्तव्यों को ससम्मान समादर दिया। इनके सम्पूर्ण जीवन की कृतियों में अखिल वाङ्मय की वास्तविकता छायी हुई मिलेगी, जो इनकी शोभा को चार चाँद लगाती है। योगियों के योग विषयों को भाषाबद्ध संकलन करने का श्रेय जैन साहित्य में आचार्य हरिभद्र को मिला है। यद्यपि संस्कृत समर्थ विद्वान् होते हुए भी निर्ग्रन्थ निगमागमों की पावनी प्राकृत भाषा को लेखनी से लिपीबद्ध किया। श्रुत को कामधेनु स्वीकार कर इस प्रकार से दोहन किया, जो दुग्ध आज भी प्राज्ञजन पी रहे है। यही उनकी समदर्शिता का विपाक है। परिणाम है। इस प्रकार शोध प्रबन्ध का प्रथम अध्याय उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को उजागर करता है। तत्त्व को संपूज्य श्रद्धेय स्वीकार करने का सदाचार हमारे संस्कृति में सदा से सनातन रहा है। तत्त्व को बुद्धि से तोलकर हृदय से शिरोधार्य कर हमारी संस्कृति चलती आ रही है और तत्त्व जगत के प्रकाश को प्रसारित करती रही है। तत्त्व और सत्त्व इनको अवधारित करने की हमारी उज्ज्वल परम्परा प्राचीन मिली है। पुरातन युग में तत्त्व की अवधारणाएँ सर्वोपरि सिद्ध रही है, प्रसिद्ध बनी है। इसीलिए प्राचीन काल से अद्यावधि तत्त्व मीमांसा की महत्ताएँ, मान्यताएँ जीवित रही है। इसीलिए द्वितीय अध्याय में आचार्य हरिभद्र की तत्त्व मीमांसा का चिन्तन हुआ है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIII उपसंहार | 473