________________ आचार्य हरिभद्र इसी के उदाहरण है। उन्होंने आत्म क्षमता को वाङ्मय में विराजित कर अन्य की अवधारणाओं को अनाथ होने नहीं दिया। अन्यों की मान्यताओं का मूल्यांकन करने में मतिमान रहे। ऐसी शोभनीय सुमतिवाले आचार्य हरिभद्र का दार्शनिक जीवन सभी को सुमान्य हुआ क्योंकि उनकी आवाज अवरोधमयी नहीं थी। अपमानमयी नहीं थी, परंतु एक आदर्शमयी थी। अतः उनके ग्रन्थों में अन्य दार्शनिक सिद्धान्तों को बहुमान मिला है जिसका उल्लेख सप्तम अध्याय में किया गया है। श्रमणवाद को सहिष्णुता का आदर्शवाद उपस्थित करने में आचार्य हरिभद्र एक प्रगट-प्रभावी पुरुषवर बौद्धों के बुद्धिगम्य संबोधों को स्वीकार करते हुए स्वात्म सिद्धान्त की धारणाओं को ध्वंस होने नहीं दिया। यह इनकी अलौकिक साधना श्रमण संस्कृति के इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित की जायेगी। हरिभद्र का दर्शन अन्य दर्शनों की अवधारणाओं से गर्भित है, गुम्फित है। फिर भी स्वयं की दार्शनिकता जीवित मिलती हैं। दर्शन ग्रन्थों में जहाँ अन्य अवधारणाएँ अवसान तुल्य बन जाती है। सम्मान देकर स्वयं को स्वदर्शन में प्रतिष्ठित रखने का हरिभद्र का प्रयास प्रशंसनीय रहा है। तत्काल प्रचलित दर्शनवादों का अनुशीलन करते हुए अनुनय पूर्वक अपने ग्रन्थ सन्दर्भो में सम्मान देते हुए स्वयं में सुदृढ़ रहते है। ऐसी अद्भुत दार्शनिकता का दर्शन हरिभद्र के वाङ्मय में दर्शित होता है। सत् का स्वरूप और सम्बन्ध सर्वथा उपादेय है। सत् के बिना शास्त्रीय मीमांसा चरितार्थ नहीं होती है। आत्मतत्त्व अखिल दर्शन का सार है जो सर्वत्र सन्मान्य है। योग का स्वरूप आध्यात्मिक जगत का एक प्रतीक श्रेष्ठ स्वरूप है। मोक्ष सभी को मान्य है और मोक्ष की उपादेयता सभी ने अंगीकृत की है। अतः मोक्ष मान्य है और श्रद्धेय भी है। ___ कर्म विज्ञान इतना विवेचित विवक्षित है कि उसका तत्त्वावबोध सभी के लिए अनिवार्य है। प्रमाण सहित प्रमेय का महत्त्व मान्य बना रहा है। इसलिए संप्रमाण प्रस्तुति करण का उपयोग शास्त्रमान्य रहा है। सर्वज्ञ स्वयं में सत्प्रतिशत सफल सत्य है, जो त्रिकाल में भी तिरोहित नहीं बन सकता। अन्यान्य सन्दर्भो से सर्वज्ञ की सर्वोत्तमता सभी को सन्मान्य है। आचार्य हरिभद्र ने 'सर्वज्ञ सिद्धि' ग्रन्थ में सर्वज्ञ की सुन्दर, सुगम्य सिद्धि करके सर्वज्ञ को सर्वोत्कृष्ट कोटि में रख दिया। ____ उपरोक्त बिन्दु के सिवाय भी आचार्य हरिभद्र ने अपनी लेखनी चलाई है। जो पारमार्थिक रूप से श्रद्धा का सम्बल है। उन्होंने अतीन्द्रिय पदार्थों को श्रद्धागम्य बताया है, तो विचारों को आचार गम्य दिखाया है। उन्होंने एकान्त के साथ अनेकान्त को जोड़कर विश्व के सामने स्याद्वाद की सप्तभंगी प्रदर्शित कर दी जो अनेक प्रकार के वैर-विरोध, वाद-विवाद से हटकर समन्वयवादी की पुरोधा बनी। अन्त में सभी दार्शनिकों को उन्होंने अपने ग्रन्थों में जीवन्त किया है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII VA उपसंहार | 479]