________________ शिष्यहिता टीका एवं नन्दीसूत्र टीका में जो ज्ञान का अनुपम रहस्य उद्घाटन किया है। वैसा अन्य दर्शनों में अप्राप्य है। ज्ञान उनके जीवन का एक अंग बन गया था। उन्होंने विषयों को सुंदर ढंग से सजाकर साहित्य जगत् को समर्पित किया है। साथ में अपने विषय प्रतिपादन के साथ पूर्वपक्ष को आदर सहित स्थान प्रदान किया है। अन्य दर्शनों की अवधारणाओं को अपने साहित्य में अवतरित करके कई स्थानों पर खण्डन न करते हुए मण्डन का रूप प्रदान किया है। इसका सर्व श्रेष्ठ साक्षी ग्रन्थ 'षड्दर्शन समुच्चय' ग्रन्थ है। अल्प श्लोकों में अथाह भावों को भर दिया। 'गागर में सागर' कहेंगे तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनकी उदारता, विराटता, विशालता यहाँ भी प्रस्तुत होती है। आचार्य हरिभद्र अपने आप में एक अप्रतिम आचार्यवर हुए। उनका व्यक्तित्व वाङ्य के विशाल कलेवर में कृतज्ञ है। उनकी कृतियाँ उनके जीवन चरित्र शाश्वत का आयुष्य देती रही है। उनका वैदुष्य विशाल विवेक सम्पन्न विगतमय विद्याप्रवाद से परिपूर्ण रहा। वे युग-युगों तक सदैव स्मरणीय सेवनीय रहेंगे। अन्यान्य दर्शनों में दर्शनकारों ने भी हरिभद्र की प्रतिभा का पूजन किया है। उन्होंने जितने भी ग्रन्थों की रचना की है, इतनी किन्हीं आचार्यों की नहीं मिलती है। अपने अद्भुत व्यक्तित्व से वाङ्मय को विशाल रूप देने में महाविद्यावान् सिद्धहस्त एक सफल टीकाकार हुए। आचार्यश्री हरिभद्रसूरि के दार्शनिक चिन्तन का वैशिष्ट्य इतना विपुल एवं विशेष विद्यमान है जिसको तत्त्वमीमांसा से आत्मसात् किया जा सकता है। अनेकान्तवाद की भूमिका से भव्य देखा जा सकता है। सर्वज्ञ . सिद्धि के सोपान पर जाने का सहज मार्ग समुपलब्ध हो सकता है। ये सारी बातें ज्ञानमयी धारणा से स्वपर प्रकाशक बन सकती है। पंचज्ञान की सिद्धि के लक्षण, प्रकार का प्रस्तुतिकरण आचार्य हरिभद्र का अनूठा रहा इस प्रकार ज्ञान के वैशिष्ट्य से जिनका वैदुष्य युग-युगों तक आदर्शता की कथा कहता रहेगा। पंचाचार की प्रवीणता परम उत्कर्ष रूप से उपस्थित करने में अपना अनुभव उच्चता से प्रस्तुत किया है। आचार के बल पर आचार्य पद की गरिमा को गौरव देने का प्रयास प्रशंसनीय बनाया है। अन्य दार्शनिकों की दृष्टि में आचार्य हरिभद्र का दार्शनिक ज्ञान आस्थेय बना है। उन्होंने आत्मा, योग, मोक्ष, कर्म जैसे असामान्य विषयों पर अपनी सिद्ध हस्त लेखनी चलाई है। जो युग-युगों तक इनके यशस्काय को मान्यता देती रहेगी। इनका सर्वज्ञवाद समुचित रूप से, सुव्याख्येय बनकर विद्वद् समाज में सर्वमान्य रहा है। इस प्रकार उन्होंने आजीवन सहस्रवार्ताओं में अपना अमूल्य समय अर्पित कर वाङ्मय को विशाल विशारद रूप दिया ऐसा कहना उपयुक्त होगा। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व V IA उपसंहार 480