Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ सिद्ध जीवों में ज्ञान का सद्भाव शाश्वत रहता है। अतः ज्ञान को विशिष्टता से व्याख्यायित किया गया है। इस ज्ञान का विशिष्टपन अपने आप स्वयं सिद्ध मान लिया गया है क्योंकि ज्ञान के बिना ज्ञाता होना अशक्य है। ज्ञानने सभी शक्यताओं को समुचित रूप से सही मार्ग-दर्शन दे दिया है। ___विचारों की व्युत्पत्ति को विशेषता से व्यवहार में लाने का काम आचार है। कई बार विचारों को विधिवत् पवित्र बनाने में आचार के अगणित उत्तरदायित्व मिले है। इसीलिए आचार पारिभाषिक बना, परिपूजित रहा और प्राचीनतम होता गया। नित्य नवीनता को भी मार्गदर्शन देता रहा। आचार अपने आप में आत्म निर्भर रहा हैं और स्वयं में सक्षम रहने का दृढतम प्रयोग प्रारम्भ करता है। इसीलिए आचार की संहिता बनी, इसी आचार मीमांसा का उल्लेख चतुर्थ अध्याय में किया गया है। ___ आचार आत्मज्ञान के सिवाय स्वयं में रहने की शक्ति नहीं रख सकता है। अतः आत्मज्ञान का और आचार का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है। कई बार आचार देश, काल, आत्ममति विज्ञान से अनेक प्रकार के आकार को, प्रकार को, प्रसार को धारण करता है। जैन दर्शन ने भी इसी आचार को मूर्धन्य मानकर ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार को उल्लिखित किया है। साथ में साध्वाचार और श्रावकाचार में पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत का स्थान रहा है। इसीसे श्रावक आचारवान गिना जाता है। ___श्रमणाचार में पाँच महाव्रतों का सत्रह प्रकार के संयम, पाँच चारित्र, बाईस परिषहों का पालन करने से श्रमण आचारवान् अभिभाषित किया गया है। इसलिए आचार को प्रथम धर्म के रूप में वैदिक विज्ञान ने घोषित किया है। “आचारः प्रथमो धर्मः" आचार ही धर्म-कर्म को प्रकाशित करता है। आचरण से ही उच्चारण का सौभाग्य खिलता है। इसीलिए कथनी और करनी की शुद्धता का नाम आचार है। आज आचार संहिता उपलब्ध होती है तो ऋषि-महर्षियों के विज्ञान का परिणाम है। आज हम बौद्ध दर्शन में भी आचार सम्बन्धी मान्यताएँ प्राप्त कर रहे है। इन्हीं आचार को विस्मृत कर लिया जाय तो आशयों का मूल्यांकन समाप्त हो जाएगा। इसलिए आचरण जीवन की गतिविधियों की गरिमा को धारण करनेवाला आचार है। आचार से ही अभिजातपन अवभासित होता है। अतः उपादेय है, आदृत है और आचरणीय है। यदि आचार रहित विचार जीवित रहते है तो वे कारागार जैसे कटघरे में अवरुद्ध है। निर्विरोध नित्य संचार करनेवाला वायु आचार स्वरूपवान् होकर समक्ष में आता है और परोक्ष की विश्वासभूत बाते विदित करवाता है। विदित करवाने में विचारों की श्रृंखला को आचार ने ही सुरूप दिया है, इसलिए आचार एक उत्तम आचरण का स्थान है। जिनको इतिहास भी शिरोधार्य कर चल रहा है। साहित्य भी स्वान्तकरण में सम्मानित करता जीवित रह रहा है। समाज भी आचारों से उदित और मुदित रह सकता है। इसलिए आचार प्रधान जीवन का संविधान स्पष्ट हुआ है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने आचार एवं आचारवान् में कुछ अभिन्नता दिखाकर दार्शनिक तत्त्व स्याद्वाद को उजागर किया है जो जैन दर्शन का सर्वोत्कृष्ट दार्शनिक तत्त्व है। साथ ही उन्होंने आचार का आधार आत्मज्ञान | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI IIIVA उपसंहार | 475 ]