Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ सप्तम अध्याय आचार्य हरिभद्र के दर्शन में अन्य दर्शन की अवधारणाएँ आचार्य हरिभद्र एक ऐसे जैन आचार्य हुए हैं, जिन्होंने जैन दर्शन की भव्यता के साथ अन्य भारतीय दर्शनों के बीच एक सेतु का कार्य किया है। वे एक ऐसे उदारवादी दार्शनिक आचार्य माने जाते है जिनका किसी से वैर-विरोध या राग-आसक्ति नहीं है। इसीलिए उनकी दार्शनिक कृतियों में अन्य दार्शनिक सिद्धान्तों का उल्लेख देखा जा सकता है। यहाँ विभिन्न दर्शनों के सिद्धान्तों का उल्लेख है, जिसकी प्रस्तुति किसी न किसी रूप में उनके दर्शन में देखी जाती है। (1) सत् के सन्दर्भ में - सत् दर्शन जगत का एक मूलभूत तत्त्व है। सत्वाद दार्शनिक जगत का पुरातन प्रमेय तत्त्व रहा है। इसीलिए आचार्य उमास्वाति ने इनको सूत्ररूप में इस प्रकार प्रस्तुत किया है - 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्।' वाचकवर उमास्वाति ने सत् को उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य से सन्दर्भित किया है। सत् शब्द का प्रयोग प्रशस्त कार्य के लिए माना गया है। सद्भाव में साधुभाव में सत् शब्द का प्रयोग प्रचलित हुआ है। यज्ञ में, तप में और दान में सत् की स्थिति रही हुई है। यज्ञ, तप और दान के लिए ही जो कार्य किया जाता है, वह सत्संज्ञा से संबोधित रहता है। इसलिए सत् का स्थान इसमें भी है और परलोक में भी है। श्रद्धा से युक्त कार्य सत् कहलाता है। वह सत् तप भी हो, जप भी हो, दान भी हो, चाहे स्वाध्याय भी हो, ये सभी पावन परंपरा के पथिक है। इस प्रकार सत शब्द का उपयोग श्री भगवद् गीता में किया गया है। सत् विषयक आचार्य हरिभद्र का गहनतम मन्तव्य एवं मन्थन है, जो उमास्वाति के मन्तव्य का ही अनुकरण है। आचार्य हरिभद्र उमास्वाति के अनुयायी होते हुए अन्य दार्शनिकों के जगत् सम्बन्धी सत् विरोधी सिद्धान्त का प्रत्युत्तर इस प्रकार देते हैं - शास्त्रकारों का श्रम इस जगत को सत्वाद स्वरूप से ही निरूपण करने में रहा है। वैदिक जगत् में सत् को ही ब्रह्म स्वरूप से स्वीकृत किया गया है - ‘सदविशिष्टमेव सर्वं।' बौद्ध वाङ्मय में सत् को अर्थक्रियाकारक कहा गया है। न्यायदर्शन में सत् को सत्ता नामक पर सामान्य से लक्षित किया गया है। सांख्यदर्शन के प्रथम आचार्य कपिल ने सत् को चैतन्यात्मक घोषित किया है। सत्त्व को त्रिगुणात्मक भी कहा है। उपनिषदों की परिभाषा में सत् सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर और महान् से भी महत्तर निर्दिष्ट किया गया है। . ऋग्वेदकालीन सत् को इतना महत्त्व दिया है कि उसका (सत्) भी अस्तित्व है, क्योंकि नामोल्लेख ही | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIII VITA सप्तम् अध्याय | 439