Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ सर्वथा आत्मा का अभाव है। इस प्रकार का ज्ञान होने से मुक्ति प्राप्त होती है, कारण कि क्षण-क्षण में आत्मा नाश होने से क्षणिक ही है। उसमें भ्रान्ति से नित्यत्व दिखता होने से तृष्णा भोग की तीव्र इच्छाएँ होती है, उसीसे उस प्रकार का आत्म दर्शन दोष की परंपरा को बढ़ाते है। उसीसे श्रीमान् बुद्धदेव कहते है कि आत्मा नहीं है, मैं कुछ भी नहीं हूँ। मेरा कुछ भी नहीं है। ऐसा निरात्म दर्शन होता है तब उसका नाश होता है। आत्म दर्शन के कारणों का जहाँ अभाव होता है, वहाँ दोषों का भी नाश ही होता है। ऐसा बौद्ध पण्डित प्रवर मानते है, तथा न्यायरूप प्रमाणों से युक्ति के बल धारण न्यायवादी सभी दोष की हानि होने से आत्मा मुक्त होती है ऐसा कहते है परन्तु ये विद्वान् पण्डित साँख्य दर्शन के वादी के समान केवल शास्त्रों के प्रमाण का शरण नहीं करते। इस निरात्म दर्शन का जिसमें अनुभव होता है वह समाधिराज है ऐसा शास्त्रों में कहा हुआ है उसीसे वही तत्त्वदर्शन है और इस आग्रहरूप मूर्छा का नाश करता है, उसीसे समाधिराज श्रेष्ठ अमृत है। जन्म-जन्म की उत्पत्ति का कारण जो तृष्णा है वह आत्म दर्शन से दृढ होती है / आत्म दर्शन के अभाव में तृष्णा का अभाव होने से मुक्ति प्राप्त होती है। आत्मा को मैं हूँ ऐसे दर्शन का अभाव होने से किसी भी स्थान में स्नेह नहीं रहता है। उससे प्रेम का अभाव होने सुख के लिए इतः ततः भ्रमण नहीं करता। उसीसे शून्यरूप में स्थिर होता है। उससे वह मुक्त हो जाता है। ये सभी बातें बौद्ध दर्शन की कुमारी कन्या के पुत्र सुख की प्राप्ति तुल्य है। नैयायिकों का मानना है कि शरीर, इन्द्रिय, सुख, दुःख आदि का उच्छेद करके आत्मस्वरूप में स्थित होना मुक्ति है। न्यायसार में आत्यन्तिक दुःख निवृत्ति करके नित्य अनुभव में आनेवाले विशिष्ट सुख की प्राप्ति को भी मुक्ति माना है।२१ सांख्य दर्शनवाले कहते है कि - माठरवृत्ति में मुक्ति के विषय में ऐसा वर्णन मिलता है कि - खूब हँसो, मजे से पीओ, आनन्द करो, खूब खाओ, खूब मौज करो, हमेशा रोज-बरोज इच्छानुसार भोगों को भोगो। इस तरह जो अपने स्वास्थ्य के अनुकुल हो वह बेशक होकर करो, इतना सब करके भी यदि तुम कपिलमत को अच्छी तरह समझ लोगे तो विश्वास रखो कि तुम्हारी मुक्ति समीप है। तुम शीघ्र ही कपिल मत के परिज्ञानमात्र से सब कुछ मजा-मौज करते हुए भी मुक्त हो जाओगे। दूसरे शास्त्रों में भी कहा है - सांख्य पच्चीस तत्त्वों को यथावत् जाननेवाला चाहे जिस आश्रम में रहे, वह चाहे शिखा रखे, मुंड मुंडावे या जटा धारण करे उसकी मुक्ति निश्चित है। सांख्य तत्त्वों के ज्ञाता बिना मोक्ष प्राप्ति करना संदेह है।२२ - प्रकृतिवियोग मोक्ष पुरूषस्य बतैतदन्तरज्ञानात् / 23 प्रकृति के वियोग का नाम मोक्ष है, यह प्रकृति तथा पुरुष में भेद विज्ञानरूप तत्त्वज्ञान से होता है। प्रकृति और पुरुष में भेदज्ञान होने से जो प्रकृति का वियोग होता है वही मोक्ष है। जैसे - यह पुरुष वस्तुतः शुद्ध चैतन्यरूप है। प्रकृति से अपने स्वरूप को भिन्न न समझने के कारण मोह से संसार में परिभ्रमण | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIII 4 सप्तम् अध्याय 449) / / / / / /