Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut

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Page 517
________________ निष्कर्ष रूप में आत्मा के साथ कर्म का अनादि काल का सम्बन्ध है और वह कर्म ही संसार परिभ्रमण का हेतु है। अतः कर्म क्षय के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए। प्रमाण - प्रत्येक दर्शन में प्रमाण के विषय में विशद विवरण मिलता है। क्योंकि प्रमेय की प्रामाणिकता के लिए प्रमाण अत्यंत उपादेय माना गया है। उसके बिना प्रमेय की सिद्धि संभव नहीं है, लेकिन प्रत्येक दर्शन की अपनी-अपनी भिन्न मान्यताएँ होने के कारण प्रमाणों की संख्या में भी भेद स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। आचार्य पुंगव श्री हरिभद्रसूरि ने अन्य दर्शन की विभिन्न मान्यताओं का उल्लेख अपने दर्शन ग्रन्थों में किया (1) बौद्ध मत - अविसंवादी ज्ञान को प्रमाण कहते है। इससे सौगत के मत से अविसंवादक ज्ञान ही प्रमाण की कोटि में आता है। जिस ज्ञान के द्वारा अर्थ की प्राप्ति नहीं होती वह अविसंवादि नहीं हो सकता। जैसे कि केशोण्डुक ज्ञान। स्वविषय का उपदर्शन कराने में दो ही प्रमाण सक्षम है, अतः बौद्ध दर्शन दो प्रमाण को ही मान्यता प्रदान करता है। प्रमाणे द्वे च विज्ञेये तथा सौगतदर्शने। प्रत्यक्षमनुमानं च सम्यग्ज्ञानं द्विधा यतः॥७ बौद्ध दर्शन में दो प्रमाण है, एक प्रत्यक्ष और दूसरा अनुमान / चूंकि सम्यग्ज्ञान दो ही प्रकार का है, अतः प्रमाण दो ही हो सकते है, अधिक नहीं। इससे यह सूचित होता है चार्वाक् द्वारा निर्धारित प्रमाण प्रत्यक्षरूप एक साँख्या, नैयायिक आदि द्वारा मानी गयी प्रमाण की प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान रूप से तीन-चार आदि संख्याएँ इष्ट नहीं हैं। क्योंकि उनकी यह निश्चित धारणा है कि विसंवादरहित सच्चा ज्ञान दो ही प्रकार का है। अतः प्रमाण भी दो ही हो सकते है। तथा विषय प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से दो ही प्रकार के हैं, इसलिए भी उन दो प्रकार के विषय को जाननेवाला सम्यग्ज्ञान दो ही प्रकार का हो सकता है। बौद्ध के मत में क्षणिक परमाणु रूप विशेष स्वलक्षण तो प्रत्यक्ष का विषय होता है तथा बुद्धि प्रतिबिम्बित अन्यापोहात्मक सामान्य अनुमान का विषय होता हैं। इस तरह विषय की द्विधता से प्रमाण के द्वैविध्य का अनुमान किया जाता है। प्रत्यक्ष सामान्य पदार्थ को तथा अनुमान स्वलक्षणरूप विशेष पदार्थ को विषय नहीं कर सकता। प्रत्यक्ष से विषयभूत सभी अर्थ परोक्ष है, इस प्रकार विषयों के दो होने से उनका ग्राहक सम्यग्ज्ञान भी दो प्रकार का है। इनमें जो सम्यग्ज्ञान परोक्ष पदार्थ को विषय करता है, वह अनुमान में अन्तर्भूत होता है, क्योंकि वह अपने साध्यभूत पदार्थ से अविनाभाव रखनेवाले तथा नियतधर्मी में विद्यमान लिंग के द्वारा परोक्षार्थ का सामान्य रूप से अविशद ज्ञान करता है, अतः प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण युक्तियुक्त सिद्ध होते है। आगम, उपमान, अर्थापत्ति तथा अभाव आदि सभी का अन्तर्भाव प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण कर लेते है। बौद्ध सम्मत प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण - प्रत्यक्ष कल्पनापोढमभ्रान्तं तत्र बुध्यताम् / 38 [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII सप्तम् अध्याय |455

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