Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut

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Page 525
________________ दृष्टार्थानुपपत्त्या तु कस्याप्यर्थस्य कल्पना। क्रियते यद्बलेनासावर्थापत्तिरुदास्ता। प्रत्यक्ष आदि छह प्रमाणों से प्रसिद्ध अर्थ के अविनाभाव से किसी अन्य अदृष्ट-परोक्ष पदार्थ की कल्पना जिस ज्ञान के बलपर की जाए वह अर्थापत्ति है। अर्थापत्ति छः प्रकार से होती है। (6) अभाव प्रमाण - वस्तु की सत्ता के ग्राहक प्रत्यक्षादि पाँच प्रमाण जिस वस्तु में प्रवृत्ति नहीं करते उसमें अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति होती है। प्रमाण पञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते। वस्तु सत्तावबोधार्थ तत्राभाव प्रमाणता॥ वस्तु भावाभावात्मक है उसमें सदंश की तरह असदंश भी रहता है। प्रत्यक्षादि पाँचो प्रमाण वस्तु के सदंश को ही ग्रहण करते है असदंश को नहीं। प्रत्यक्षादि प्रमाण पंचक के अभाव में होनेवाला अभाव प्रमाण वस्तु के असदंश को.ही जानता है सदंश को नहीं। कहा भी है - प्रमाणों के अभाव को अभाव प्रमाण कहते है। यह 'नास्ति' नहीं है इस अर्थ की सिद्धि करता है। इसे अभाव को जानने के लिए किसी प्रकार के सन्निकर्ष की आवश्यकता नहीं होती। कोई आचार्य अभाव प्रमाण को तीन रूप से मानते है। (1) प्रमाण पंचक का अभाव (2) जिसका निषेध करना है उस पदार्थ के आधारभूत पदार्थ का ज्ञान (3) आत्मा का विषय ज्ञान रूप से परिणत ही न होना। वे इस श्लोक का यह अर्थ करते है प्रत्यक्षादि पाँच प्रमाण जिस भूतल आदि आधार में घटादि रूप के आधेय को ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त नहीं होते उस घटादि आधेय से शून्य शुद्ध भूतल को ग्रहण करने के लिए अभाव की प्रमाणता है। इस अर्थ से निषिध्यमान घट से भिन्न शुद्ध भूतल का ज्ञान ही अभाव प्रमाण होता है।४३ चार्वाक् मत - चार्वाक् दर्शन मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानता है। उनका मत इस प्रकार हैएतानेव लोकोऽयं यावानिन्द्रिय गोचरः। भद्रे वृकपदं पश्य यद्वदन्त्यबहुश्रुताः॥४ जितना आँखो से दिखाई देता है, इन्द्रियों से गृहीत होता है उतना ही लोक है। जो मूर्ख लोग अनुमान की चर्चा करते है उन्हें भेडिये के पैर के कृत्रिम चिन्हों से उसकी व्यर्थता बता देनी चाहिए। ___ अर्थात् यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला मनुष्यलोक, स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियों के द्वारा ही विषय होनेवाले पदार्थों तक सीमित है। इनसे परे कोई अतीन्द्रिय वस्तु नहीं है। आस्तिकवादी जीव पुण्य-पाप उनके फल स्वर्ग नरक आदि अतीन्द्रिय पदार्थों को मानते है। वे वस्तुतः है ही नहीं क्योंकि उनका प्रत्यक्ष-साक्षात्कार नहीं होता। यदि इस तरह काल्पनिक और अप्रत्यक्ष पदार्थों को मानने लगे, तो खरगोश के सींग तथा वन्ध्या के लड़के का सद्भाव मान लेना चाहिए। पाँच प्रकार की इन्द्रियों के विषयों को छोड़कर संसार में अन्य किसी अतीन्द्रिय पदार्थ का सद्भाव नहीं है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIINA सप्तम् अध्याय | 463 )

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