Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ मानने के लिए तैयार नहीं है। वे सम्पूर्ण कार्यों को सहज स्वभाव से परिलक्षित करते है और कहते है - भौतिकानि शरीराणि विषयाः करणानि च। * तथापि मंदैरन्यस्य, कर्तृत्वमुपदिश्यते॥ यह शरीर, विषय तथा इन्द्रिय पंचभूतों से बना हुआ है। फिर भी जो मंदबुद्धि वाले लोग है वे यह मानते है कि इनको बनानेवाला अन्य कोई कर्ता है। बहुश्रुत का शास्त्र में सम्मान है उनके वक्तव्य को प्रमाणभूत मानते है / जबकि नास्तिकमत के मनीषी पुरुष नेत्रगम्य को ही प्रत्यक्ष प्रमाणभूत मानते है। परोक्ष के विषय का परिहास करते इस प्रकार की बातें कहते है एतावानेव लोकोऽयं, यावनिन्द्रिय गोचरः। भद्रे वृकपदं ह्येतद्, यद्वदन्ति बहुश्रुताः॥ जितना इस चक्षु से प्रत्यक्ष होता है इतना ही लोक है। फिर भी बहुश्रुत शास्त्रमर्मज्ञ नाम धारण करनेवाले जो इस लोक को बहुत बड़ा लोक कहते है वह तो हे भोली ! वरु के चरण के समान है। जिस तप और संयम को श्रद्धेय और सम्माननीय स्वीकारा गया है। अग्निहोत्र कर्म को स्वर्ग का सुख मिलने वाला कहा गया है। उसके विषय में नास्तिक मत में मूर्धन्य महाप्राज्ञ कुछ इस प्रकार कहते है - तपांसि यातनाश्चित्राः संयमो भोगवंचनाः। अग्निहोत्रादिकं कर्म बालक्रीडेव लभ्यते॥ तप करना यह विचित्र प्रकार के कष्ट है, संयम को स्वीकारना यह भोगों को ठगना है तथा अग्निहोत्रादि क्रियाओं करना यह बालक्रीडा के समान व्यर्थ है। नैयायिक मान्यता यह रही है कि कारणों से ही कार्यों की समुत्पत्ति सम्भवित रही है। परंतु कर्मवाद के विरोधी विज्ञजन इस प्रकार कहते है। कारणानि विभिन्नाति, कार्याणि च यतः पृथक् / तस्मात्रिष्वपि कालेषु, नैव कर्माऽस्ति निश्चयः॥ कारणों से कार्य अलग रहे है। उस कारण से तीनों कालों में कर्म की सत्ता संभवित नहीं है। इस प्रकार अन्यान्य दर्शनों में लोक विषयक, कर्म विषयक, संयमविषयक एवं तप विषयक मान्यताएँ प्रचलित रही है।४८ भाग्यवादियों की मान्यताएँ आश्चर्यकारिणी रही है- वे न धन को महत्ता देते है, न गुणों की गणना करते है, न विद्या की वर्चस्विता (महत्ता) करते है न धर्माचरण को शुभ मानते है, न सुख-दुःखों के स्वरूप को गिनते है। वे केवल समय के यान में बैठकर भाग्य जहाँ ले जाता है उस मार्ग से वे चलते है ऐसी भोली-भाली मान्यताएँ भाग्यवादियों की है। इसका समुल्लेख आचार्य हरिभद्र ने अपने लोकतत्त्व निर्णय में सुंदरता से समुल्लेख किया है। स्वच्छंदतो नहि धनं न गुणो न विद्या नाप्येव धर्म चरणं न सुखं न दुःखम्। आरुह्य सारथिवशेन कृतान्तयानं, दैवं यतो नयति तेन पथा व्रजामि // 49 आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIII सप्तम् अध्याय 467