Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut

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Page 528
________________ स्तवन बने। आनंदघन जैसे आध्यात्मिक पुरुषों ने सप्तभंगी को परमात्म स्तुति कर अभिवर्णित कर अपना भक्ति प्रदर्शन भावपूर्ण बनाया। इसी सप्तभंगी पर द्रव्यानुयोग की रचना हुई और गहनतम, गंभीर विषयों की विवेचनाएँ वर्णित हुई। इसी द्रव्यानुयोग का अध्ययन श्रमण परंपरा में प्रामाणिक माना गया। अतः अनेकान्तवाद आगमों के आधारों का आश्रय स्थल बना। अनेकान्तवादी किसी भी दुराग्रह से दुःखित नहीं मिलेंगे। वे सभी के प्रति सन्यायवादी रहते है, और स्वयं में सुदृढ सुज्ञात स्पष्टवादी रहता हुआ, स्याद्वाद की भूमिका को निभाता है। इसलिए हमारी निर्ग्रन्थ परम्परा दर्शनवाद के दुराग्रह से सुदूर रहती हुई अनेकान्तवाद की उच्चभूमि पर अचल रहता है। अन्यों से अनवरत आदर सम्मान सम्प्राप्त करने में सूरिवर हरिभद्र अद्वितीय रहे है। इनका दार्शनिक जीवन दिगदिगन्त तक यशस्वी बना है। प्रत्येक दार्शनिक आम्नाय ने इनके मन्तव्यों को महत्त्व दिया है। और इनके सिद्धान्तों की सराहना की है। स्व-सिद्धान्त के निरूपण में आचार्यवर एक नैष्ठिक, निष्णात, निर्ग्रन्थ, नय के निपुणनर के रूप में उपस्थित हुए है। इन्होंने श्रमण सिद्धान्त को समन्वयता से सुयशस्वी बनाने का जो. एक सूक्ष्म दृष्टि-कोण समुस्थित किया है। वह शताब्दियों तक इनकी सराहना करता रहेगा। निर्विरोध और निर्वैरता से विपक्ष को विशेष सन्मान देते हुए स्वयं के प्ररूपण में पारदर्शी प्राप्त होते है। ऐसी इनकी अनुपमेय विद्वत्ता विद्वद् समाज को मार्ग दर्शन देती माध्यस्थ भाव में रहने का सुझाव देती है। इनकी यह माध्यमिकवृत्ति और प्रवृत्ति पुरातन प्रचंड प्रद्रोह को प्रनष्ट करती है। शालीनता से जीवन जीने की प्रेरणा देती है। प्रामाणिकता से अपने सिद्धान्त को सहजता से सुवाचित करते सुभाषित बनाते स्वयं की मेधा को मनोज्ञ बनाते रहे है। इनकी मेधा का मनोज्ञपन महाविरोधियों को भी विद्या विवेक का विमर्श देता रहा है। परों से पराजित नहीं हुए, अपरों से अनादृत नहीं बने ऐसा उनका विद्यामय व्यक्तित्व एक विशाल श्रमण-संस्कृति के संरक्षक रूप में समुपस्थित रहे है। प्रत्येक काल इनकी कृतियों का और इनकी आकृतियों का अर्चन करता, आदर करता और इनके अपार उदारता का समादर बढ़ाता संस्कृति साहित्य और समाज के ओजस् को और तेजस् को तपोनिष्ठ बनाता रहेगा। हरिभद्र चले गये परन्तु हारिभद्रीय हितकारिणी प्रवृत्तियों का और उनकी लिखित कृतियों का पुण्योदय कभी भी न क्षीण होगा और न कोई क्षपित, क्षयित कर सकने का अधिकारी बनेगा। वे शब्दानुशासन के एक अनुभवी आदर्श आचार्य थे। उनका विद्यायश सदा उनकी शोभा का प्राक्कथन करता रहेगा। वे एक नैयायिक रूप में, दार्शनिक स्वरूप में सिद्धान्त शिरोमणि सत्य से श्रमण संस्कृति के संयोजक, संवाहक और संचालक रहे है। यद्यपि उनका समय संघर्ष के चुनौती भरे वातावरण में व्यतीत हुआ, बौद्धों के साथ संघर्ष हुए / मातृहृदया याकिनी ने उनके विचारों को विवेकता दी है। विनयशीलता, पढ़ाई और विद्या समृद्धि के लिए उत्साह दिया। उसी का यह परिणाम है कि आज अन्य अपर विद्वान् भी नतमस्तक होकर आचार्य हरिभद्र की गुणगाथा गाते है। स्वभाववाद - दार्शनिक जगत में स्वभाववाद की भी महत्ता चर्चित की है। स्वभाववाद किसी को कर्ता | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIII सप्तम् अध्याय 1466

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