Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut

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Page 526
________________ आचार्य हरिभद्र प्रमाण के दो भेद ही मानते है तथा अन्य द्वारा माने गये तीन, चार, छः आदि प्रमाणों का इन दो में ही अन्तर्भाव स्वीकारते है। परवादी प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव, सम्भव, ऐतिह्य, प्रातिभ युक्ति और अनुपलब्धि आदि अनेक प्रमाण मानते है। इन में से जो उपमान, अर्थापत्ति आदि की तरह प्रमाण की कोटि में आते है, प्रमाणभूत साबित होते है। उनका इन्हीं प्रत्यक्ष और परोक्ष में अन्तर्भाव कर लेना चाहिए। जो विचार करने पर भी मीमांसक के द्वारा माने गये अभाव प्रमाण की तरह प्रमाण ही सिद्ध न हो उनके अन्तर्भाव या बहिर्भाव की चर्चा ही निरर्थक है, क्योंकि ऐसे ज्ञान तो अप्रमाण ही होंगे। अतः उनकी उपेक्षा ही करनी चाहिए। षड्दर्शन समुच्चय की टीका अस्पष्ट अविसंवादी ज्ञान को परोक्ष कहकर उनके पाँच भेद किये है।. (1) स्मृति (2) प्रत्यभिज्ञान (3) तर्क (4) अनुमान (5) आगम।५ सर्वज्ञ के सन्दर्भ में - सर्वज्ञता स्वयं सिद्ध है। शास्त्रीय प्रकरणों से परम चर्चित है। पूर्व मीमांसाकार कुमारिल भट्ट के अनुसार जैसे मनुष्यता में सर्वज्ञता का समुदाय संभव नहीं है। कोई मनुष्य सर्वज्ञ होने का दावा नहीं कर सकता। अतः सर्वज्ञता जैन दर्शन की एक मौलिक मान्यता है। जो शास्त्रों में सिद्ध है, प्रसिद्ध है और स्वयं सर्वज्ञ तीर्थंकर परमात्मा है ऐसी अटल श्रद्धा श्रमण वाङ्मय में प्रचलित है और इस विषय की प्ररूपणाएँ विभिन्न तर्कों का सामना करती हई प्रत्युत्तर देती रही है। इस उत्तरदायित्त्व को निभाने में निष्णात हरिभद्र सूरि अभिनन्दनीय हैं। इन्होंने स्वतन्त्र एक सर्वज्ञ-सिद्धि ग्रन्थ की रचना कर सर्वज्ञता को सभी दृष्टि से श्रद्धेय किया है। सर्वज्ञ-सिद्धि में वे कहते है - स्वगते नैव सर्वशः, सर्वज्ञत्वेन वर्तते। न यः परगते नापि स स इति उपपद्यते॥६ वह सर्वज्ञ सर्वज्ञपना से ही संवर्धित है, इसमें कोई बाधा नहीं है। निराबाध सर्वज्ञपन सदा सिद्ध हुआ है। ईश्वरवादी ईश्वर को सर्वज्ञ स्वीकारते हैं और सर्वोपरि ईश्वरत्व की सिद्धि करते हैं, वह ईश्वर अवतार रूप से अवतरित होकर सर्वज्ञता की सर्व सिद्धि करता है। उस ईश्वर में सर्वज्ञता स्वतः सिद्ध स्वीकारी हुई भक्तजन देखते हैं। ईश्वरवादिता सर्वज्ञता से संपृक्त है, परंतु जैनदर्शन सर्वज्ञत्व को तीर्थंकरत्व में प्रतिष्ठित मानता है। वैसे ही ईश्वरवादी आम्नाय ईश्वर में सर्वज्ञत्व के संदर्शन कर लेता है। इस प्रकार सर्वज्ञत्व चिरन्तन शास्त्रगुम्फित ज्ञानगर्भित मान्य रहा है। जैसे जैन आम्नाय तीर्थंकर में सर्वज्ञ की स्थापना करता है, वैसे ही बौद्ध परंपरा बुद्ध को सर्वज्ञ कहती है। बौद्ध कोषकार अमरसिंह ने सर्वज्ञ सुगतः बुद्ध' ऐसा संग्रह किया है। अतः बौद्ध परंपरा में सर्वज्ञता की सिद्धि स्वतः ही स्पष्ट है। प्रत्येक-आम्नाय ने अपने-अपने इष्ट देव को सर्वज्ञता की कोटि में रखा है, अन्य को नहीं। जैनों के तीर्थंकरों में बौद्ध की सर्वज्ञता दृष्टि क्षीण है। जैनों की सर्वज्ञता दृष्टि तथागत बुद्ध में स्थिर नहीं है। अतः यह विषमवाद आम्नायगत सर्वत्र मिलेगा। परंतु आचार्य हरिभद्रने सर्वज्ञ को सर्वदर्शी स्वीकार कर अपनी आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII I सप्तम् अध्याय [ 464]

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