Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ अव्यभिचारी तथा व्यवसायात्मक ज्ञान प्रत्यक्ष है। सन्निकर्ष - अर्थ के साथ इन्द्रियों का सन्निकर्ष अर्थात् समीपता, प्राप्ति, सम्बन्ध यह सन्निकर्ष छः प्रकार का होता है। (1) संयोग सन्निकर्ष (2) संयुक्त समवाय सन्निकर्ष (3) संयुक्त समवेत समवाय सन्निकर्ष (4) समवाय सन्निकर्ष (5) समवेत समवाय सन्निकर्ष (6) विशेषण-विशेष्याभाव सन्निकर्ष। (1) संयोग - चक्षुरादि इन्द्रियों का द्रव्य के साथ सन्निकर्ष होता है। अर्थात् चक्षुरिन्द्रिय का तेजोद्रव्य रूप, रसनेन्द्रिय का जल द्रव्य रूप, घ्राणेन्द्रिय का पार्थिव तथा स्पर्शेन्द्रिय का वायु द्रव्य रूप इन द्रव्य रूप इन्द्रियों का द्रव्य के साथ संयोग संबंध होता है। (2) संयुक्त समवाय - द्रव्य में रहनेवाले रूपादि गुणों के साथ संयोग सम्बन्ध होता है। (3) संयुक्त समवेत समवाय - रूपादि में समवाय से रहनेवाले रूपत्वादि के साथ संयुक्त समवेत समवाय सन्निकर्ष है। (4) समवाय - श्रोत्र के द्वारा शब्द का साक्षात्कार करने में समवाय सन्निकर्ष होता है। कर्ण शष्कुली में रहनेवाले आकाश द्रव्य को श्रोत्र कहते है। (5) समवेत समवाय - शब्दत्व के साथ श्रोत्र का समवेत समवाय सन्निकर्ष होता है। आकाश में . समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले शब्द में शब्दत्व का समवाय होता है। (6) विशेषण-विशेष्यभाव - समवाय और अभाव का प्रत्यक्ष करने के लिए विशेषण-विशेष्यभाव सम्बन्ध होता है। इस प्रकार छः प्रकार का सन्निकर्ष होता है।३९ नैयायिक के मत में प्रत्यक्ष दो प्रकार का है। (1) अयोगि प्रत्यक्ष (2) योगि प्रत्यक्ष। अयोगि प्रत्यक्ष - हम लोकों को जो इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष से ज्ञान उत्पन्न होता है वह अयोगि प्रत्यक्ष है। यह निर्विकल्पक तथा सविकल्पक रूप से दो प्रकार का है। वस्तु के स्वरूप मात्र का अवभास ज्ञान निर्विकल्पक है। यह इन्द्रिय सन्निकर्ष होते ही सबसे पहले उत्पन्न होता है। वाचक संज्ञा और वाच्य संज्ञा से सम्बन्ध का उल्लेख करके होनेवाला शब्द संसृष्ट ज्ञान के निमित्त सविकल्पक कहते है। जैसे यह देवदत्त है, यह दण्डी है। इत्यादि। योगि प्रत्यक्ष - दूर देशवर्ती अतीतानागत कालवर्ती तथा सूक्ष्म स्वभाव वाले यावत् अतीन्द्रिय पदार्थों को जानता है। योगि प्रत्यक्ष स्वामी के भेद से दो प्रकार का होता है। (1) युक्त योगि प्रत्यक्ष (2) वियुक्त योगि प्रत्यक्ष। (1) युक्त योगि प्रत्यक्ष - समाधि से जिनका चित्त परम एकाग्रता को प्राप्त हुआ है उन युक्त योगियों को योगज धर्म तथा ईश्वरादि जिनमें सहकारी है ऐसे आत्मा तथा अन्तःकरण के संयोग मात्र से सम्पूर्ण पदार्थों का यावत् परिज्ञान होता है। वह युक्त योगि प्रत्यक्ष है। इसमें बाह्य अर्थों के सन्निकर्ष की आवश्यकता नहीं है। यह [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII सप्तम् अध्याय | 457