Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ कल्पनापोढ़ अर्थात् निर्विकल्पक तथा भ्रान्ति से रहित अभ्रान्त ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते है। प्रत्यक्ष अर्थात् जो इन्द्रियों के प्रतिगत आश्रित हो उसे प्रत्यक्ष कहते है। शब्दसंसर्गवाली प्रतीति को कल्पना कहते है। जो ज्ञान कल्पना रहित है, वह कल्पनापोढ़ अर्थात् निर्विकल्पक ज्ञानों की प्रत्यक्षता का निरास हो जाता है। प्रत्यक्ष चार प्रकार का है - (1) इन्द्रिय प्रत्यक्ष (2) मानसप्रत्यक्ष (3) स्वसंवेदन प्रत्यक्ष (4) योगिविज्ञान प्रत्यक्ष। (1) इन्द्रिय प्रत्यक्ष - चक्षुरादि पाँच इन्द्रियों से उत्पन्न होनेवाले रूपादि पाँच बाह्य पदार्थों को विषय करनेवाले ज्ञान को इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहते है। (2) मानस प्रत्यक्ष - इन्द्रिय ज्ञान के विषयभूत घटादि विषय के द्वितीय क्षण रूप सहकारी सहायता से इन्द्रियज्ञान रूप उपादान कारण जिस मनोविज्ञान को उत्पन्न करते है, वह मानस प्रत्यक्ष कहलाता है। ___ (3) स्वसंवेदनज्ञान - चित्त अर्थात् केवल वस्तु को विषय करनेवाला ज्ञान तथा चैत्त अर्थात् विशेषों को ग्रहण करनेवाला ज्ञान सुख-दुःख उपेक्षारूप ज्ञान / समग्र चित्त और चैत्त के स्वरूप का संवेदन स्वसंवेदन प्रत्यक्ष कहा जाता है। ___ (4) योगि प्रत्यक्ष - भूतार्थ वास्तविक क्षणिक निरात्मक आदि अर्थों की प्रकृष्ट भावना से योगिप्रत्यक्ष उत्पन्न होता है। प्रमाणसिद्ध पदार्थों की भावना-चित्त में बार-बार विचार जब प्रकृष्ट होता है तब उससे योगिज्ञान की समुत्पत्ति होती है। अनुमान - पक्षधर्म, सपक्षसत्त्व तथा विपक्षासत्त्व इन तीनों रूपवाले लिंग से होनेवाला साध्य का ज्ञान अनुमान कहलाता है। यह अनुमान दो प्रकार का होता है, स्वार्थ और परार्थ त्रिरूपलिंग को देखकर स्वयं लिंगी अर्थात् साध्य का ज्ञान करना स्वार्थानुमान है। पर को साध्य का ज्ञान कराने के लिए त्रिरूप हेतु का कथन किया जाता है, तब उस हेतु से पर को होने वाला साध्य का ज्ञान परार्थानुमान कहलाता है। बौद्ध कार्य से कारण का अनुमान व्यभिचारी होने से नहीं मानते है। कारण के होने पर भी कभी कार्य नहीं देखा जाता। बौद्ध लोक जो इस को चखकर तत्समकालीन रूप का अनुमान तथा समग्र हेतु से कार्योपादका अनुमान मानते है। नैयायिक मत - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शाब्दिक (आगम) ये चार प्रकार के प्रमाण है। इनमें इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न होनेवाले, अव्यभिचारी, संशय, विपर्यय आदि दोषों से रहित व्यवसायात्मकनिश्चयात्मक तथा व्यपदेश यह रूप है, यह रस है, इत्यादि शब्द प्रयोगों से रहित ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते है। प्रत्यक्षपूर्वक उत्पन्न होनेवाला अनुमान ज्ञान पूर्ववत्, शेषवत् तथा सामान्यतोदृष्ट भेद से तीन प्रकार का है। अक्षपाद ने स्वयं न्यायसूत्र में कहा है कि 'इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न होनेवाला, अव्यपदेश्य, [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII सप्तम् अध्याय 1456