________________ संघात से भिन्न स्वभाव करनेवाला कोई ज्ञात नहीं होने से तो जगत की विचित्रता जो दिखाई देती है वह कैसे सिद्ध होगी ? आत्मा, कर्म बन्धन, कर्म मुक्ति, संसार भ्रमण आदि परिणाम भूत से भिन्न आत्मा हो तो ही सिद्ध होती है। इसके द्वारा चार्वाक् मत नष्ट हुआ।१७ योग का माहात्म्य - आचार्य हरिभद्रसूरि ने योग के माहात्म्य का उल्लेख सुंदर भावों से किया। योग ही श्रेष्ठ कल्पवृक्ष है, और योग ही उत्कृष्ट चिंतामणी है, योग ही सर्व धर्मों में प्रधान है, तथा योग अणिमादि सर्व सिद्धियों का स्थान है। योग जन्मबीज के लिए अग्नि समान है तथा जरा अवस्था के लिए जरा व्याधि समान है तथा दुःख का राज्यक्ष्मा है और मृत्यु का भी मृत्यु है। योग स्वरूप कवच जिन आत्माओं ने धारण कर लिया उनके लिए कामदेव के तीक्ष्ण शस्त्र भी निष्फल हो जाते है, अर्थात् योगी के चित्त को चंचल करने की शक्ति कामदेव के शस्त्रों में भी नहीं है। निष्कर्ष रूप में तो आचार्य हरिभद्रसूरि ने यहाँ तक कह दिया कि 'योग' शब्द में इतनी महत्ता है कि जो विधिपूर्वक सुन लेता है, उच्चारण कर लेता है उसके सभी पाप कर्मों का क्षय हो जाता है। आचार्य हरिभद्र ने चर्चित सभी योग सिद्धान्तों में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया है। मोक्ष के सन्दर्भ में - जिस आत्मा में प्रेम स्थिर होता है, तो कभी भी वैराग्य संभव नहीं है। जब तक जीव रागवान् है, तब तक उसकी मुक्ति सम्भव नहीं है। ऐसे बौद्धों के सिद्धान्त को त्याग करना ही उचित है और उसको जलाञ्जली देना ठीक है ऐसा आचार्य हरिभद्र का मन्तव्य है। ___ आचार्य हरिभद्र का प्राक्कथन है कि - निरात्मदर्शन आत्मा के अत्यंताभाव को कहता है अथवा अनात्म के क्षणिकत्व को कहता है। ये दोनों बौद्ध दर्शन के विचार आत्म सिद्धि में सफल नहीं है। क्योंकि जो सर्वथा आत्मा का अभाव स्वीकार करते हो तो मुक्ति काम का संकल्प निरर्थक है। यदि हम धर्मी की सत्ता विद्यमान देखते है तो धर्म की चिन्ता विचारणा करनी योग्य है। यही न्याय वार्ता हमारे दर्शन जगत में प्रसिद्ध है। आचार्य हरिभद्र चुनौती रूप में बौद्ध दर्शन को ललकारते है। तुम्हारा यह नैरात्म दर्शन कब किसको हुआ ? इसका प्रतिपादक कौन ? ऐसा एकान्त-तुच्छ आत्मा का अभाव कैसे कर सकता है ? ये सारी बातें बौद्ध दर्शन की कुमारी कन्या के पुत्र सुख की प्राप्ति तुल्य है। योगबिन्दु में बौद्ध दर्शन सम्बन्धी मान्यता इस प्रकार मिलती है - नैरात्मदर्शनादन्ये निबन्धनवियोगतः। दोषग्रहणमिच्छन्ति, सर्वथा न्याययोगिनः॥९ न्याय योगिराज कहते है कि उस आत्मा के निरात्म भाव दर्शन से मुक्तता होती है तथा दोषों के नाश होने से मुक्ति प्राप्त होती है। सर्वथा कर्म से मुक्त होते है। 'नैरात्मदर्शनात् मुक्तिः | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII सप्तम् अध्याय 1448