Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ क्योंकि सभी आत्मा को योग-प्रवेश पाना शक्य नहीं है। अतः जब सर्वथा पुरुष का प्रकृति के अधिकार से दूर नहीं होता, तब तक पुरुष को यथार्थ तत्त्वमार्ग में प्रवेश करने की इच्छा जागृत नहीं है। यह जैन मत की पुष्टि में ही उल्लेख किया है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने भी निश्चय नय से सर्व विरति तथा देशविरति वाले आत्मा को ही योग के अधिकारी माने है, अपुनर्बन्धक, सकृद्बन्धक, द्विर्बन्धक को तो व्यवहार से माना है। तथा मार्गानुसारी में भी योग का बीज तो माना है। यह बात श्रीमान् गोपेन्द्र तथा अन्य विद्वान् भी स्वीकार करते है। एवं लक्षणयुक्तस्य, प्रारम्भादेव चापरैः। योग उक्तोऽस्य विद्वद्भिर्गोपेन्द्रेण यथोदितम्॥१६ पूर्व कथित अवग्रह, इहा, अपाय, धारणा अर्थात् यह वस्तु इस प्रकार कैसे संभव हो सकती है। वैसे तर्क बल से योग्य-अयोग्य का विचार जिस जीवात्मा को होता है, वह विचार युक्त लक्षण गुण से संयुक्त जो होता है वह ईहा कहलाता है। उस जीवात्मा को पूर्वसेवा, देवगुरु भक्ति, तप जप व्रतपालन आदि प्रारंभ से ही होते है। उस जीवात्मा को कर्ममल का जितने अंश में नाश होता है उतने अंश में सम्यग्मार्गानुसारीत्व होता है, और उतने अंश में मोक्ष मार्ग प्रवृत्त होता है। ऐसा योगशास्त्र के रचनाकार योगी श्रीमान् गोपेन्द्र भगवान तथा अन्य विद्वान् भी उनका कथन स्वीकार करते है। योग की प्रियता - विद्वान् से लेकर आबालगोपाल तक सभी सामान्य लोक में यह बात प्रसिद्ध है कि इस दुःषमकाल में भी योग की सिद्धि जिसको प्राप्त हुई है, उनका योगफल का लाभ रूप परम शांत स्वरूप दिखाई देता है। जैसे कि महायोगी आनंदघनजी, चिदानंदजी, देवचंद्रजी, यशोविजयजी आदि योगसिद्ध थे। उन्होंने जो शांति एवं समता की अनुभूति की है वैसी शांति करोडपति, अरबपति, राज, महाराजा भी अनुभव नहीं कर सकते। जब पंचम आरे में ऐसे योगी परम आनंद का अनुभव करते है, उससे यह समझना चाहिए कि चतुर्थ तृतीय आरे में तो परमात्मा ऋषभदेव के शासन में तो योग की साफल्यता सर्वथा सिद्ध है। तथा उस समय में उनके योग का फल प्रत्यक्ष दिखाई देता था। जैसे कि - विष्णुकुमार, मुनिराज योगबल धर्मद्वेषी नमुचि को शिक्षा कर जैन संघ की योग्य समय में सेवा कर कर्म की महानिर्जरा की यह बात जगत के प्रत्येक व्यक्ति को मालूम है तथा अनार्य भी योग की सिद्धि का प्रभाव जानते है। तथा योग का जो विशेष फल आगम में बताया है, वह बात आवश्यक नियुक्ति में इस प्रकार मिलती है - - योगियों के शरीर का मेल मनुष्य के रोग का नाश करता है तथा योगियों के कफ, थूक, प्रस्रव स्वेद भी लोक की पीड़ा दूर करने में औषध है। उसीसे योगियों की उन शक्तियों को लब्धि नाम से पुकारते है। इस प्रकार योग के अभ्यास से अनेक लब्धियाँ, सिद्धियाँ प्राप्त होती है ऐसा आगम में, सिद्धान्त में आप्त पुरुषों ने समझाया है। इसी कारण से भावयोगी में दिखता यह योग का माहात्म्य पृथिव्यादि भूत समुदाय में से मात्र उत्पन्न होता है यह तो बिल्कुल सिद्ध नहीं होता है, कारण कि यह माहात्म्य भूतों से उत्पन्न होता है ऐसा माने तो भूत आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII सप्तम् अध्याय 44