Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ अमूर्तश्चेतनो भोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रिय। अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म आत्मा कपिला दर्शने।" सांख्य दर्शन में आत्मा अमूर्त है, चेतन है, भोक्ता है, नित्य है, सर्वगत है, निष्क्रिय है, अकर्ता है, निर्गुण है तथा सूक्ष्म है। 'योगबिन्दु' में सांख्यप्रणीत आत्मा का स्वरूप इस प्रकार मिलता है। श्री कपिलदेव प्रणीत सांख्य दर्शन के सिद्धान्तवेदी पण्डित कहते है कि पुरुष अर्थात् आत्मा को वस्तु स्वरूप में देखते है तो वह प्रकृति के संबंध से रहित शुद्ध स्वरूप में विकार रहित ही है। तथा सर्वत्र ब्रह्मांड व्यापक है तथा नित्य एक स्वरूप में रहनेवाला है। ‘स्वस्वरूपात् किञ्चिदप्रच्यवमानो नित्य एव सन्नित्यर्थः' - आत्मा (पुरुष) स्व स्वरूप से जरा भी च्युत हुए बिना नित्य एक स्वरूप में अवस्थित रहता है। कहा भी है - 'अच्युतानुत्पन्न स्वरुपो हि नित्यः।' - जो नाश नहीं है, उत्पन्न नहीं होता है और नित्य एक स्वभाव में रहता है वह नित्य कहलाता है। सांख्यमत में अविकारी नित्य ऐसा आत्मा पुरुष माना गया है। वह आत्मा अपने स्वरूप का बुद्धि को अर्थात् मन को ज्ञान कराती है, उससे मनरूप जो बुद्धि वह यद्यपि अचेतन जड़ है। फिर भी महत् तत्त्वरूप प्रकृति विकारवाली होने से मैं आत्मा चैतन्य ऐसे परिणाम को धारण करती है। कारण कि वह आत्मा यानि पुरुष के सानिध्य में रही हुई होने से उसमें आत्मा का प्रतिबिम्ब पड़ता है। यहाँ सांख्य दर्शनकार उदाहरण देकर स्पष्ट करते है कि - जिस प्रकार स्फटिकरत्न के पास पद्मराग, लालरत्न, जुइपुष्प आदि का संयोग होने पर स्फटिकरत्न उसी प्रकार का रंग, रूप, आकार को धारण करता है। उसी प्रकार सूर्य, चंद्र के किरणों का स्पर्श होने पर उस प्रकार के प्रतिबिम्ब को अपने स्वरूप में धारण करता है तथा वैश्वानल तथा जलकांत रत्न के संपर्क से उस स्वरूप का भान कराता हैं। अर्थात् लालपुष्प के संपर्क में लालस्वरूप को कालापुष्प के संयोग में काले स्वरूप को, पीला पुष्प के संपर्क में पीले स्वरूप को प्राप्त हुआ अपने को जिस प्रकार बताता है उसी प्रकार बुद्धि भी आत्मपुरुष के संपर्क में रहकर स्वयं चेतन रूप ज्ञात करवाती है, साथ-साथ उस बुद्धिरूप मन इन्द्रिय के संयोगद्वारा बाह्य रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द आदि विषयों के संयोग संबंध से विषयों का भोग करती हुई ‘मैं आत्मा हूँ' उन-उन सभी विषयों की ग्राहक हूँ, ऐसा अभिमान धारण करती है, उससे पारमार्थिक रूप से आत्मा निर्विकारी होने पर भी बुद्धि में पतित अन्य प्रतिबिम्ब के साथ आत्मा बिंबित बना हुआ उपाधि रूप में एकत्वभाव को प्राप्त करता है। वस्तुतः आत्माबुद्धि, मन और महत् तत्त्वरूप प्रकृति से सर्वथा भिन्न होने से अविकारी पुष्कर पुष्प के समान निर्लेप ही है। ऐसा सांख्य दर्शन का मानना है। वैशेषिक मत का मानना है कि आत्मा-जीव यह अमूर्त तथा व्यापक होकर भी अनेक है। उनका यह स्पष्ट कथन है कि - आत्मा-जीवोऽनेकोनित्योऽमूर्ता विभुर्द्रव्यं च।६ ___मीमांसक में उत्तरमीमांसावादी वेदान्ती मात्र अद्वैत ब्रह्म को ही मानते है। उनका कथन है ‘सर्वमेतदेवं | आचार्य हरिभद्ररि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIII सप्तम् अध्याय | 442