Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut

Previous | Next

Page 502
________________ अस्तित्व को सिद्ध करता है। पुरातन पुराणों के प्रखर वक्ता श्री व्यास ने सत् को नित्य और अविनाशी कहा है। आचार्य हेमचन्द्राचार्य ने उपमेय भाव से सत् विषय को आलोडित किया है और साथ में युक्तिसंगत एवं उचित कहा है। जिस प्रकार एक ही दूध, दही, नवनीत और घी के स्वरूप को धारण करता है, वैसे ही एक ही सत् अनेक उत्पादात्मक, व्ययात्मक एवं ध्रुवात्मक रुप से परिणत होता है। सत्, सत् रूप में रहता हुआ भी अनंत धर्मात्मक है, ऐसी मान्यता याकिनीतनय हरिभद्र की है। इस प्रकार सत् का अस्तित्व इतिहास मान्य है। समाज स्वीकार्य है। और सभी दार्शनिकों का स्पष्ट सम्बोध है कि सत् एक अस्तित्ववान सत्त्व है और वह तत्त्व भी है। सत्त्व क्यों है, कि वह आत्मवाद से अभिन्न है और तत्त्व क्यों है, कि वह दार्शनिक विचारश्रेणी का नवनीत पीयूष है। सत्त्व रहित चिन्तन दार्शनिक जगत में स्थान प्राप्त नहीं कर सकता है, इसलिए ससम्मान सत्त्व को ईश्वरवाद से भी पृथग् नहीं बनाया जा सकता। ज्ञान को भी नानाभाव वाला कहकर विभक्तों में भी अविभक्त रहनेवाला ऐसा सत्त्वमय नानाभावों से युक्त होता हुआ भी स्वयं में सत्त्ववान् है। इस प्रकार सत् सम्बन्धी विचारणाएँ, विवेचनाएँ जो मिली है, वे सभी उपयुक्त है और उचित है, क्योंकि सत् के बिना कोई भी स्वयं के अस्तित्व का आविर्भाव नहीं कर सकता है / अतः आविर्भाव के लिए और अस्तित्व के लिए सत् की सत्ता को समयोचित स्वीकार कर लीया जाता है, वह पदार्थ भी सत्त्ववान् गिना जाता है और व्यक्ति भी सत्त्ववान् कहलाता है। ___ यह सत् प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनंत है। परंतु व्यक्ति-विशेष की अपेक्षा से अंनित्य है, क्योंकि सत् सर्वथा शक्तिमान होता हुआ सापेक्षित दृष्टि से विवेचित हुआ। आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने दर्शन ग्रन्थों में सत् विषयक अन्यदर्शन की अवधारणाओं का विस्तृत विवेचन अभिव्यक्त किया है। आत्मा के सन्दर्भ में - आत्मा का अस्तित्व प्रायः सभी धर्मों में मान्य होकर भी आत्मा की परिभाषा को शब्दावली में बांधना बड़ा कठिन कार्य है। वस्तुतः आत्मा नाम की वस्तु आँखों से अदृश्य कानों से अश्राव्य तथा मन से अननुभाव्य होने से परिभाषा करने में अत्यन्त कठिनता महसूस होती है। फिर भी श्रेष्ठ विद्वानों ने विभिन्न परिभाषाएँ दी है। आर्य संस्कृति आत्मवादिता पर अपना अस्तित्व रखती है। यह संस्कृति आत्मा के अस्तित्व को सम्मानित रखनेवाली परमात्मवाद की ओर ढ़लती हुई मिलती है। आत्मवाद, परमात्मवाद, कर्मवाद और लोकवाद इन सभी का अवगाहन, अनुसंधान आत्मवाद ही कर सकता है। अतः आत्मा को सश्रद्धाभाव से स्वीकृत करने में श्रमण संस्कृति ने अग्रेसरता अपनाई है। आत्मतत्त्व सदा से अरूपी रहा है, अगोचर बना है। परोक्ष का रूप धारण करता है। फिर भी प्रत्यक्षवत् [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व सप्तम् अध्याय 440]

Loading...

Page Navigation
1 ... 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552