Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ अपनी अल्पज्ञता होने से, परमात्मा द्वारा प्ररूपित जीव, कर्म और उसके सम्बन्धी योग्यता अनादिकालीन है। ऐसा दृढ विश्वास पूर्वक मानना चाहिए।२६६ कंचन और मिट्टी के समान जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि होने पर भी उपायों के द्वारा दोनों का वियोग भी अवश्य हो सकता है। उसी को आचार्य हरिभद्रसूरि सुयुक्तियों द्वारा बताते है। जिज्ञासु अथवा अज्ञानी के मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि जिसका संबन्ध अनादि से उसका अंत कैसे हो सकता है जिस प्रकार अभव्य में अभव्यता अनादि से है। अतः अनंतकाल तक रहती है, उसी प्रकार जीव और कर्म का सम्बन्ध भी अनादि काल से होने के कारण अनंत-काल तक रहना चाहिए। उससे जीव की मुक्ति की बात घटित नहीं होती है। . लेकिन यह बात युक्तियुक्त नहीं है। जिसका सम्बन्ध अनादिकाल से हो उसका अनंतकाल तक सम्बन्ध रहे यह कोई नियम नहीं है। क्योंकि यह नियम तो व्यभिचार युक्त है। जैसे कंचन और मिट्टी का सम्बन्ध अनादि है फिर भी खार मिट्टी आदि के पुटपाक से उस सम्बन्ध का अंत आ सकता है। उसी प्रकार जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि होने पर भी सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रयी की उपासना से अंत लाया जा सकता है। . .. ___ यद्यपि कंचन और उपल का सम्बन्ध अनादि का कहा है। लेकिन विचार करने पर पारमार्थिक रूप से वह अनादि सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि दोनों पृथ्वीकाय जीवद्रव्य के मूर्त शरीर ही है। उससे जब उन जीवद्रव्यों की पृथ्वीकाय रूप में - खाण में उत्पत्ति हुई तब उनका सम्बन्ध हुआ। अर्थात् संख्याता वर्षादि पूर्व का सम्बन्ध हो सकता है। परंतु अनादि काल का नहीं। अतः वास्तविक सम्बन्ध सादि और सान्त है फिर भी कंचन और उपल के सम्बन्ध अनादि कहा है। जिसका समाधान आचार्य हरिभद्रसूरि ने योग-शतक की टीका में 'निसर्गमात्रतया' : पद से किया है। अर्थात् यह दृष्टांत निसर्गमात्र रूप में ही देने में आया है। इस सम्बन्ध की आदि होने पर भी व्यवहारिक जीवों को उसकी आदि नहीं मिलती है। उसकी अपेक्षा से दोनों का सम्बन्ध अनादि है। कंचन और उपल के समान दूसरे भी ऐसे दृष्टांत मिलते है जो अनादि होने पर भी अनंत नहीं है, परंतु उनका अंत है। 1. प्राग्भाव न्यायदर्शन में अनादि है फिर भी सान्त है। 2. बीज और अंकुर की उत्पत्ति प्रवाह से अनादि है फिर भी बीज को न बोने अथवा अंकुर के नाश हो जाने पर अंत होता है। 3. मुर्गी और अंडे की उत्पत्ति अनादि होने पर भी दोनों में से एक का विनाश होने पर अंत भी होता है। उसी प्रकार जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि होने पर रत्नत्रयी की उपासना आदि से अंत आ सकता इसी बात का उल्लेख ‘विशेषावश्यक-भाष्य'२६८ में भी ग्यारहवें गणधर के शंका के समाधान पर किया गया है। (11) कर्म के विपाक - सम्पूर्ण प्रकृतियों का जो फल होता है उसको विपाक अथवा विपाकोदय आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI VIVA पंचम अध्याय | 368