Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ असम्प्रज्ञात समाधि अर्थात् इन्द्रिय और मनोजन्य ज्ञान द्वारा होनेवाली सम्पूर्ण वृत्तियों का जिसमें अभाव है वह असंप्रज्ञात समाधि कहलाती है। सम्प्रज्ञात समाधि दो प्रकार की है - (1) सयोगी केवली (2) अयोगी केवली। प्रथम समाधि में मानसिकवृत्तियों रूप संकल्प-विकल्पज्ञान का अत्यंत उच्छेद होता है। केवलज्ञान प्राप्त होने से उपदेश देने स्वरूप वचनयोग और आहार-विहार-निहार-विद्यादिरूप काययोग अवश्य होता है। यह समाधि तेरहवें गुणस्थानक में होती है। तथा अयोगीकेवली रूप दूसरी असम्प्रज्ञातसमाधि वह परिस्पन्दरूप योगात्मक वृत्तियों .. का क्षय होने से प्रगट होती है, कारण कि मन-वचन-काया के योग से रहित है उसीसे पूर्णतः पुद्गलभावरहित . है - सर्वथा कर्मबंधरहित है, अनाश्रवभाव और पूर्ण संवरभाव को प्राप्त किये हुए है / यह अवस्था ही मुक्ति प्राप्ति का अनंतर कारण है।५७ __इस प्रकार आचार्य हरिभद्रसूरि ने सभी दर्शनों की समाधि को जैन दर्शन की समाधि से समन्वय करके योगाभ्यासी को एक सापेक्षज्ञान की अनुभूति कराई है। योगदृष्टि समुच्चय में तीन प्रकार के योग बताये हैं - (1) इच्छायोग (2) शास्त्रयोग (3) सामर्थ्ययोग। (1) इच्छायोग - इस योग में आत्मा को धर्म करने की इच्छा होती है। आगमों के अर्थों को बराबर सुनता है तथा ज्ञानवान् होता है, लेकिन उस आत्मा का प्रमाद के वश से जो अपूर्ण धर्मयोग होता है वह इच्छायोग कहलाता है। (2) शास्त्रयोग - प्रमाद रहित और श्रद्धावंत आत्मा को शास्त्रीय सूक्ष्म अवबोध के कारण आगम वचनों के साथ अखंड तथा उसी कारण अतिचार रहित ऐसा यथाशक्ति किया जाता जो धर्मयोग वह शास्त्रयोग कहलाता है। (3) सामर्थ्ययोग - सामान्य रीति से शास्त्रों में बताये हुए उपयोगवाला और विशिष्ट प्रकार की शक्ति की अतिशय प्रबलता होने से शास्त्र के विषय से पर ऐसा यह तीसरा सामर्थ्ययोग है।५८ सामर्थ्य योग दो प्रकार का है। (1) धर्मसन्यास - क्षायोपशमिक भावों के भेद उसका त्याग करना ही धर्म सन्यास योग है। यह योग द्वितीय अपूर्वकरण अर्थात् क्षपकश्रेणि काल में ही प्रगट होता है। (2) योगसन्यास - मन-वचन-कायिक क्रियाओं का सर्वथा त्याग - योग सन्यास कहलाता है। यह योग आयोजिका करण करने के बाद केवली परमात्मा को होता है। इच्छायोग से प्रारंभ की गई मुक्ति नगर की प्राप्ति की यात्रा यहाँ समाप्त होती है। यह योग संन्यास नाम का सामर्थ्य योग ही इस जीव को अल्पकाल में मुक्ति के साथ युंजित करता है और निश्चय से जोड़ता है। अतः इस योग को सर्वसंन्यास योग कहते है। गीता आदि अनेक ग्रन्थों में संन्यास' पद बहुत प्रसिद्ध है। आचार्य हरिभद्र के पहले किसी जैन आचार्य [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIINA षष्ठम् अध्याय | 406 )