Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut

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Page 492
________________ (3) महिमा - विस्तार वाला शरीर बनाना। (4) प्राप्ति - भूमि पर स्थित रहा हुआ अपनी अंगुली के अग्रभाग से सूर्य-चंद्र को स्पर्श करना। (5) प्राकाम्य- पानी के समान भूमि में उतर जाना। (6) इशित्व - भौतिक पदार्थों की उत्पत्ति-नाश द्वारा स्वयं की रचना करना। (7) वशित्व - भौतिक पदार्थों के परवश नहीं रहना। (8) कामावसायित्व - अपनी इच्छानुसार संकल्पमात्र से भूतों में रचना कर सके।५४ / तथा योगदर्शन में कायसंपत् इस प्रकार बताई है - शरीर में अतिशय सुंदर रूप, लावण्य, बल और वज्र के समान शरीर के अवयवों की कठोरता प्राप्त होती है। वह कायसम्पद् तथा योगदशा के प्रभाव से भूतधर्मों में से योगी को किसी प्रकार की कठिनाई नहीं आती है।५५ / तथा जैन दर्शन में भी आवश्यकनियुक्ति तथा उसी पर रचित जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा रचित 'विशेषावश्यकभाष्य' में आम!षधि आदि लब्धियाँ योग दशा में प्राप्त होती है, यह बताया है। __ आमर्षोंषधि विप्रौषधि, श्लेष्मौषधि, जल्लौषधि, संभिन्नश्रोतोपलब्धि, ऋजुमति सर्वौषधि, चारणलब्धि, आशीविषलब्धि, केवलिलब्धि तथा मनःपर्यज्ञानित्व, पूर्वधरत्व, अरिहंतत्व, चक्रवर्तित्व, बलदेवत्व, वासुदेवत्व' इत्यादि लब्धियाँ भी आत्मा को योग प्रभाव से प्राप्त होती है। योगवृद्धि के बल से ऐसी लब्धियाँ और सिद्धियाँ प्राप्त होती है, तो शोभन आहार की प्राप्ति तो सामान्य वस्तु है।१५६ / पातञ्जल योगदर्शन में आम!षधि आदि लब्धियों का वर्णन नहीं मिलता है। आचार्य हरिभद्रसूरि का योग वैशिष्ट्य - आचार्य हरिभद्रसूरि ने योग को अनेक वैशिष्ट्य से विशिष्ट बनाया है। उनका अपना वैदुष्य विरल एवं विशाल था। अपने आत्म वैदुष्य से उन्होंने योग को समलंकृत बनाया / उन्होंने योग विषय के सम्बन्ध में ऐसी श्रेष्ठ कृतियों की रचना की है, जो योग-परम्परा में आज भी अद्वितीय विशेषता रखती है। तत्त्वज्ञान विषयक स्वग्रन्थों में उन्होंने तुलना एवं बहुमानवृत्ति द्वारा जो समत्वभाव दर्शाया है, उस समत्व की प्रकर्षता उनके योग-विषयक ग्रन्थों में प्रस्फुटित होती है। इसके अतिरिक्त उनके योग-ग्रन्थों में दो मुद्दे ऐसे प्राप्त होते है जो अन्य कृतियों में वैसा स्पष्ट प्रस्तुतिकरण अशक्य है। उनमें से प्रथम है - अपनी परम्परा को भी अभिनव दृष्टि का कडुआ घुट पिलाकर उसे सबल एवं सचेतन बनाना, और दूसरा - भिन्न-भिन्न पंथों और सम्प्रदायों में संकीर्ण दृष्टिकोण के कारण अपूर्ण अध्ययन के कारण तथा परिभाषाभेद को लेकर उत्पन्न होनेवाली गलतफहमी के कारण जो अन्तर चला आता था और उसका संपोषण एवं संवर्धन होता रहता था उसको दूर करने का यथाशक्ति प्रयत्न / योग विषयक उनके चार ग्रन्थों में से दो प्राकृत में है और दो संस्कृत में है। प्राकृत भाषा में आलेखित योगविंशिका' और 'योगशतक' मुख्यतया जैन परम्परा के आचार-विचार को ध्यान में रखकर लिखे गये है। परन्तु जब उनका अध्ययन करते है, तो ऐसा महसूस होता है कि आचार्य हरिभद्रसूरि का आशय उन कृतियों के द्वारा जैन-परम्परा के रूढ मानस को विशेष विशाल एवं उदार बनाने का होगा। इसीसे उन्होंने योग-विंशिका में जैन परम्परा में सामान्यरूप से प्रचलित चैत्यवंदन जैसी दैनिक क्रियाओं में ज्ञानयोग, कर्मयोग तथा प्रीति, भक्ति आदि तत्त्व जो अन्य योग परम्पराओं में बहुत प्रसिद्ध है, घटाये है। इतना | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII INITIA षष्ठम् अध्याय | 432 )

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