________________ ही नहीं, उन्होंने रूढिवादियों के सामने स्पष्ट घोषणा कर दी कि बहुजनसम्मत होना ही सच्चे धर्म या तीर्थ का लक्षण नहीं है। सच्चा धर्म और सच्चा तीर्थ तो किसी भी एक मनुष्य की विवेकदृष्टि में होता है। ऐसा कहकर उन्होंने 'लोकसंज्ञा' एवं महजनो येन गतः स पन्थाः' का प्रतिवाद किया। यह उनकी आत्म निर्भयता है। इस प्रकार प्राकृत ग्रन्थों को तो योग के वैशिष्ट्य से विशद बनाये ही हैं साथ में ही योग-परम्परा में उनका असाधारण वैशिष्ट्य पूर्ण समर्पण उनके प्राप्य दो संस्कृत ग्रन्थों में समुज्वल बना। वे दो ग्रन्थ है - योगदृष्टि समुच्चय और योगबिन्दु। इन दो ग्रन्थों में उन्होंने योगतत्त्व का सांगोपांग प्रतिपादन किया है। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त 'षोडशक प्रकरण' आदि में भी थोड़ी-बहुत योग-विषयक चर्चा की है। लेकिन अन्य सभी कृतियों से योग के विषय में इनका अपना अद्वितीय स्थान है। इतना ही नहीं उनके समय में भिन्न-भिन्न धर्म-परम्पराओं में योग-विषयक जो साहित्य रचा गया और जो उपलब्ध है उसमें साहित्य की दृष्टि से भी प्रस्तुत दो ग्रन्थ निराले हैं। प्राचीन जैनागमों में प्रतिपादित ध्यान विषयक समग्र-विचार सरणी से तो हरिभद्र सुपरिचित थे। साथ ही वे सांख्य योग, शैव, पाशुपत और बौद्ध आदि परम्पराओं के योग-विषयक प्रस्थानों से भी विशेष परिचित एवं ज्ञाता थे। अतः उनकी चिन्तन धारा किसी विशाल दृष्टिकोण को लेकर चली। जो थी भिन्न-भिन्न परम्पराओं में योगतत्त्व के विषय में मात्र मौलिक समानता ही नहीं, किन्तु एकता भी है। ऐसा होने पर भी उन परम्पराओं में जो अन्तर माना या समझा जाता है उनका निवारण करना। हरिभद्र ने देखा कि सच्चा साधक भले किसी भी परम्परा का हो / उसका आध्यात्मिक विकास तो एक ही क्रम से होता है। उसके तारतम्य युक्त सोपान अनेक है। परन्तु विकास की दिशा तो एक ही होती है। अतः भले ही उसका प्ररूपण विविध परिभाषाओं में हो, विभिन्न शैली में हो, परन्तु प्ररूपण का आत्मा तो एक ही होगा। यह दृष्टि उनकी अनेक योग ग्रन्थों के अवगाहन के फलस्वरूप बनी होगी। इसीलिए उन्होंने यह निश्चय किया कि मैं ऐसे ग्रन्थ लिखू जो सभी योग शास्त्रों के दोहनरूप हो। जिसमें किसी एक ही सम्प्रदाय में रूढ परिभाषा या शैली का आश्रय न हो, लेकिन सर्वजनमान्य नयी परिभाषा एवं नयी शैली की इस प्रकार समायोजना की जाय जिससे कि अभ्यस्त सभी योग-परम्पराओं के योग विषयक मन्तव्य किस तरह एक है अथवा एक दूसरे के अतिनिकट है यह बतलाया जा सके और विभिन्न परम्पराओं में प्रवर्तमान पारस्परिक अज्ञान उसे दूर किया जा सके। ऐसे उदात्त-विशाल ध्येय से प्रस्तुत ग्रन्थों की रचना की : अनेकयोगशास्त्रेभ्यः संक्षेपेण समुद्धृतः। दृष्टिभेदेन योगोऽयमात्मानुस्मृतये परः / 157 सर्वेषां योगशास्त्राणा मविरोधेन तत्त्वतः। सन्नीत्या स्थापकं चैव मध्यस्थांस्तद्विदः प्रति॥१५८ इस प्रकार इन ग्रन्थों में आत्मा, कर्म, मोक्ष, सर्वज्ञ आदि में भिन्न नाम परिभाषा होने पर भी समदर्शिता से एकत्व की स्थापना करने का पूर्ण प्रयास है। उसमें तत्त्व से किसी का विरोध न हो, यह उनकी महान् विशेषता थी योग-विषय में। ( आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI I षष्ठम् अध्याय 433]