Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ निष्कर्ष निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि आचार्य हरिभद्र की योग-विषयक धारणाएँ विशाल एवं विराट थी / सर्वोच्च कक्षा का प्रतिनिधित्व उन्होंने योग के विषय में किया है। योग सम्बन्धी आज जो भी साहित्य मिलता है, उसमें सर्वोच्च श्रेणी का साहित्य आचार्य हरिभद्र का है। उन्होंने योग के जिज्ञासुओं की प्रत्येक जिज्ञासा को पूर्ण करने का भगीरथ प्रयत्न योग-ग्रन्थों में किया है। यह उनकी अपनी ही अद्वितीय सूझ है। आज उनके योग साहित्य की प्रशंसा भारतीय विद्वानों ने तो की ही है लेकिन विदेशी विद्वान् इससे अछूते नहीं रहे। आज उनके योग शास्त्रों से सभी योगाभ्यासी गौरव का अनुभव कर रहे हैं। क्योंकि उन्होंने किसी जाति या सम्प्रदाय को लेकर नहीं लिखा है। उन्होंने उदार भाव से सभी को योग की एक श्रृंखला में बांधने का प्रयत्न किया, जो आज हम सबके लिए गौरव का सूचक है। एक विहंगमदृष्टि से अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि आचार्य हरिभद्र एक विद्वान् ही नहीं अपितु सहृदयी, समदर्शी और बहुमानवृत्ति से भी युक्त थे। आज के इस आधुनिक युग में जिसे यान्त्रिक युग कहा जाता है। उस में भी योगज्ञ श्री हरिभद्रसूरिजी का योग तत्त्व अत्यन्त सामयिक एवं अनुसरणीय है। मानव मात्र के परित्राता बनकर जो योग सन्देश आपने हमें दिया है वह विश्व को जागृत कर एक नये श्रेष्ठ मानवजाति के निर्माण के लिए कल्याण कारक होगा ऐसा शोधार्थी का विचार है। षष्ठम अध्याय की सन्दर्भ सूचि | 1. योगबिन्दु 2. योगविंशिका योगशतक योगशतक टीका ज्ञानसार तत्त्वार्थ योगविंशिका टीका योगविंशिका 9. पातञ्जल योगसूत्र योगशतक योगबिन्दु 12. योगविंशिका टीका 13. योगशतक 14. तत्त्वार्थ सूत्र 15. योगशतक टीका 16. योगशतक | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIII गा. 201 गा.१. गा. 22 गा. 22 अ. 28, गा.१ , अं. 6 सूत्र 1 गा.१ . गा.१ पाद 1/2 गा. 21 गा. 3,4 गा. 1 गा. 2 अ.१/१ गा. 2 गा. 4,5 VA षष्ठम् अध्याय ] 434