Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut

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Page 489
________________ साधक के उपभोग भव-भ्रमण के हेतु नहीं बनते हैं। वैषयिक भोगसुखों को योगी मृगजल समान देखता है। विषयसुखों में मोहासक्ति नहीं होने का मुख्य कारण योगी की तत्त्वमीमांसा, इस दृष्टि में रहा हुआ योगी सर्वदा तत्त्वचिंतन में रमणशील रहता है। काया की अन्य प्रवृत्तियों के समय में भी इसका मन तत्त्वमीमांसा में रहा करता है। अतः मन में मोह उत्पन्न नहीं होता है। इस दृष्टि में साधक को अन्यमुद्' नाम का दोष नहीं होता है। इसी कारण योगी तत्त्व-मीमांसा में अपने मन को स्थिर बना सकता है। जिस समय जो तत्त्वचिंतन अथवा क्रिया चलती हो उस समय उसी में वह मग्न बनता है तथा हर्षयुक्त रहता अन्य विचारों का आगमन नहीं होता है। अर्थात् दूसरी क्रियाओं के भी विचार नहीं आते है। . इस दृष्टि की एक विशेषता आचार्य हरिभद्रसूरि ने बताई है कि यह योगी ‘सर्वजनप्रिय' बनता है। किसीका अप्रिय नहीं बनता है। यहाँ तक की पशु-पक्षी भी इस योगी के प्रति स्नेहभाव धारण करते हैं।१३९ / / यह धारणा दृष्टि पतञ्जलि योग की धारण से मेल खाती है। यहाँ भी कांता और धारणा का अर्थ समान रूप से है। महर्षि पतञ्जलि के अनुसार देशबन्धश्चितस्य धारणा' 140 इष्ट साध्य की साधना में मन की निमग्नता होना धारणा है, साधक धर्म सिद्धान्तों पर सहज एकाग्रचित्त हो सकता है। क्योंकि प्रत्याहार में ज्ञानेन्द्रिय अपनेअपने विषयों से खिंची हुई है। व्यास आगे कहते है नाभिक्षेत्र, हृदयकमल, कपाल, मस्तिष्क, नासिकाग्र, जिह्वाग्र इत्यादि क्षेत्रों पर या बाह्य वस्तुओं पर मन स्थिर करना ही धारणा है।१४१ इस दृष्टि में विकास करता हुआ जीव 4 से 7 गुणस्थानकों में उत्तरोत्तर विकास साधता है। (7) प्रभा दृष्टि - इस दृष्टि में योगी-पुरुष ध्यान सुख का अनुभव करता है। सूर्यप्रकाश के समान सूक्ष्म बोध के प्रकाश में आत्मतत्त्व का दर्शन प्राप्त करता है। आत्म दर्शन से आत्मविभोर बन जाता है। यहाँ योगी का चित्त पूर्णतया निरोगी बनता है। अर्थात् चित्त का एक भी विकार नहीं होता है। ध्यान का प्रकार सारासार ज्ञान (विवेक) पर अवलंबित है। हरिभद्रसूरि सुख की परिभाषा देते है। उनके मतानुसार जो भी पराधीन है, वह दुःख है और जो भी आत्मशक्ति के अधीन है-स्वाधीन है, वह सुख है। ध्यान का सुख अनुभवशील है, जिसका वर्णन अनिर्वचनीय है। ध्यान यह साधक को इतना प्रिय एवं निकटवर्ती हो जाता है कि इस अवस्था में कभी-कभी ऐसे ध्यान को योगी की प्रियतमा भी कह देते है। 142 पतञ्जलि में भी ऐसा स्वरूप दर्शन होता है। सातवाँ योगांग भी ध्यान ही है।१४३ धारणा से ध्यान बढ़ता है। मन की एकाग्रता का क्षेत्र संकुचित करना ही ध्यान है। ध्यान में मन की एकाग्रता एक ही विचार या वस्तु में सीमित होती रहती है। ध्यान की वस्तु को समझने की मानसिक चेष्टा सतत चलते रहने को ध्यान कहते है।१४४ मानसिक चेष्टा एक वस्तु छोड़कर दूसरी ओर प्रयत्न नहीं करती है। ___ इस प्रभादृष्टि में असंग अनुष्ठान होता है। इस असंग-अनुष्ठान को सांख्यदर्शन प्रशान्तवाहिता कहता है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIII A षष्ठम् अध्याय | 429

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