Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut

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Page 470
________________ राग-द्वेष तथा मोह - ये दोष आत्मा को अनादि काल से सताते है। उसको दूर करने के लिए भावनाश्रुतपाठ, तीर्थ श्रवण, आत्म संप्रेक्षण - इन तीन उपायों को अपनाने से अवश्य रागादि दोष दूर होते है। और परमात्मा की आज्ञानुसार तत्त्वचिंतन करने पर अवश्य तत्त्वबोध प्राप्त होता है और तत्त्वबोध से योग-सिद्धि प्राप्त होती है। यह आत्म-संप्रेक्षण योग-सिद्धि का कारण है। अतः विधिपूर्वक होना चाहिए तब ही अवन्ध्य फल की प्राप्ति होती है।६६ योग की विधि - आत्म संप्रेक्षण योग-सिद्धि का कारण है। अतः इसे हम योग की विधि भी मान सकते है। आचार्य हरिभद्रसूरि का स्पष्ट कथन है कि सभी कार्य में विधि की अपेक्षा सर्व प्रथम होती है। सामान्य रूप से एक घट बनाना हो तो भी विधिपूर्वक बनायेंगे तो घट बनेगा / उसी प्रकार यह तो महान् कार्य है। अतः तत्त्वचिंतन में विधि अवश्य अपनानी चाहिए। तत्त्वचिंतन से पहले सर्वप्रथम वीतराग परमात्मा बलवान् है। अतः उनकी आज्ञा पालन और उनके प्रति हार्दिक बहुमान निर्बल को भी बलवान् बनाता है। (2) एकान्त स्थान में चिन्तन करना जिससे चिन्तन की धारा में व्याघात न हो। (3) सम्यग् उपयोगपूर्वक चिंतन करना। (4) गुरु-देवों को प्रणाम करना, प्रणाम करने से अनुग्रह होता है। अनुग्रह से अधिकृत तत्त्वचिंतन की सिद्धि होती है। व्यवहार में मंत्र-रत्नादि की विधिपूर्वक सेवा-पूजा करनेवाले भव्यात्माओं को मंत्र-रत्नादि निर्जीव होने से स्वयं उपकार नहीं करने पर भी उनका ही यह उपकार' इस प्रकार हम कहते है / उसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिए। (5) पद्मासन आदि आसन लगाना। आसन विशेष से काया का निरोध होता है और योग सेवन करनेवाले अन्य योगि महात्माओं के प्रति बहुमान भाव होता है। (6) डांस-मच्छर आदि की अवगणना, वैसा करने में वीर्योल्लास की वृद्धि तथा इष्टफल की प्राप्ति होती है। (7) एकाग्रचित्त होकर इन रागादि निमित्तों का तत्त्वचिंतन करना। इन सात विधियों से युक्त किया गया तत्त्वचिंतन ही इष्टसिद्धि अर्थात् यथार्थ योगदशा की सिद्धि का प्रधानतर अंग है। यह तत्त्वचिंतन ही असत् प्रवृत्तियों की निवृत्ति करनेवाला चित्त की स्थिरता करनेवाला तथा उभयलोक का साधक है ऐसा समयज्ञ पुरुष कहते है।६७ उपरोक्त विधिपूर्वक तत्त्वचिंतन करते-करते जो तत्त्वज्ञान प्राप्त होता है वह प्रथम के दो ज्ञान- (1) श्रुतज्ञान (2) चिंतामयज्ञान का निरास करके भावनामय ज्ञान होता है। इस तत्त्वज्ञान से बड़ी से बडी उक्त तीन प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती है। इस प्रकार आचार्य हरिभद्रसूरि ने योग की विधि भी अत्यावश्यक समझकर उसका उल्लेख स्पष्ट रूप से किया है। पातञ्जल योग में इसके समकक्ष योग-विधि या तत्त्वचिन्तन का वर्णन नहीं मिलता। सदनुष्ठः- में योग - आचार्य हरिभद्रसूरि की दृष्टि में सद्-अनुष्ठान में ही योग की सार्थकता सिद्ध हो सकती है। क्योंकि कोई भी अनुष्ठान सदनुष्ठान होगा तभी वह योग की कोटी में आ सकता है। अतः सर्व प्रथम * [ आचार्य हरिशतभरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIII षष्ठम् अध्याय | 4100

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