Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ (3) स्थिरयम - अतिचारादि रूप विपक्ष की चिंता से रहित यमों का पालन करता है। (4) सिद्धियम - अचिन्त्य शक्ति की प्राप्ति द्वारा परोपकार करने में समर्थ ऐसा यह यमपालन परमार्थ रूप से अन्तरात्मा की सिद्धि है। यह यम का चौथा प्रकार है।९२ पाँचों यमों के चार-चार भेद होने से कल 20 भेद होते है। पातञ्जल योग में इन भेदों का वर्णन या वर्गीकरण नहीं मिलता है। किन्तु पतञ्जलि भी महाव्रतों की मर्यादा न बताते हुए वर्णन करते हैं।९३ इससे स्पष्ट है कि सामान्य और विशेष ऐसे दो प्रकार के व्रत है। सामान्य व्रत में भौतिक क्रिया विधियों का वर्ग है और विशेष व्रत में आध्यात्मिक वर्ग के व्रत है। इस कारण योग की सभी अवस्थाओं में यम अत्यंत आवश्यक है तथा मन की स्थिरता के लिए वे अपरिहार्य है।९५५ (2) तारा दृष्टि - यहाँ साधक को कुछ स्पष्ट बोध होता है।६ जिससे हेय-उपादेय का विवेक कुछ अधिक होता है। उस बोध की तुलना कंडे की अग्निकणों के प्रकाश से की जाती है। यह प्रकाश अल्पवीर्यवाला और अचिरकाल स्थायी होता है। पटुस्मृति के संस्कार नहीं होने से वंदनादि धर्म क्रियाएँ द्रव्य ही होती है। भावक्रिया हो वैसे संस्कार दृढ़ नहीं बनते है। हृदय में वैराग्य होता है परंतु गाढ़ अनुबंध वाला नहीं होने से मोह के निमित्त मिलते ही निस्तेज बन जाता है। बाह्यदृष्टि से धर्मानुष्ठान विधि सहित करता है। लेकिन विषय कषाय की वासना का पूर ज्यादा होता है उससे क्रियाकाल में वह उछलने लगता है। वासनाओं के प्रति उपादेयबुद्धि अभी दूर नहीं होती है। . ___ इस दृष्टि में, मुक्ति का अद्वेष होने से धर्मक्रियाओं में खेद नहीं होता है और धर्मतत्त्व को जानने, समझने श्रवण करने की उत्कंठा होती है तथा शरीरशुद्धि, वस्त्रशुद्धि आदि बाह्यशौच की अपेक्षा परपरिणति के त्यागरूप भावशौच तरफ आगे बढ़ता है। यथाशक्ति तप, स्वाध्याय, संतोष, परमात्म ध्यान रूप नियमों का समयानुकुल सेवन करता है। यह योग का दूसरा अंग है। पतञ्जलि ऋषि के मत से भी। .. पातञ्जल योगसूत्र में भी (1) शौच (2) संतोष (3) तप (4) स्वाध्याय और (5) ईश्वरप्रणिधान - ये पाँच नियम बताये है।०० तथा इच्छादि रूप से चार-चार भेद किये है। इच्छानियम, प्रवृत्तिनियम, स्थिरतानियम और सिद्धिनियम। यम-नियमों का अंतर स्पष्ट करते हुए डॉ. भगवानदास कहते है कि यमों का जीवनभर पालन होता है तो नियमों का विशिष्ट कालखंड में ही पालन किया जाता है।१०१ इस दृष्टि में अन्य गुणों का भी आविर्भाव होता है। यहाँ साधक को योग की कथाओं में रुचि होती है, प्रीति होती है। शुद्ध योगवाले योगिओं पर अत्यंत बहुमानभाव होता है। बड़ी श्रद्धा के साथ वह महान् योगिओं की सेवा करता है। जिससे उसके चारित्र के अल्प दोष दूर हो जाते है। उससे साधक की अवश्य योगवृद्धि होती है। क्षुद्र उपद्रवों का नाश होता है। व्याधि आदि दूर हो जाते है और शिष्ट पुरुषों में सन्माननीय बनता है। अशुभ प्रवृत्ति बंध हो जाने से इसको भव भ्रमण का भय नहीं रहता है। उचित कर्तव्यपालन में हमेशा जागृत रहता है। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIK Aषष्ठम् अध्याय | 423]