Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ ज्ञानी महापुरुषों की कृपादृष्टि से ही ज्ञान प्राप्त होता है।६९ योग ग्रंथों में विविध प्रकार के अनुष्ठान बताये गये है। उसमें से कौनसे अनुष्ठान सदनुष्ठान बन सकते है इसका विशेष प्रस्तुतीकरण आचार्य हरिभद्रसूरिने अपने ग्रन्थों में किया है - सर्व प्रथम योगबिन्दु में पाँच प्रकार के अनुष्ठान बताये है - विषं गरोऽननुष्ठानं, तद्धेतुरमृतं परम्। गुर्वादिपूजानुष्ठान, मपेक्षादिविधानतः // 70 विष, गरल, अननुष्ठान, तद्धेतु और अमृत - ये पाँच प्रकार के अनुष्ठान के भेद देवपूजा, गुरु भक्ति आदि क्रिया की अपेक्षा से बताये गये है। (1) विष अनुष्ठान - कीर्ति आदि प्राप्त करने की इच्छा से होने वाला यह अनुष्ठान आत्मा के शुद्ध परिणामों का नाश करनेवाला होने से विष कहलाता है, तथा विशाल अनुष्ठान का अल्प लाभ होता है तथा आत्मा की लघुता होने से यह विष अनुष्ठान जानना। (2) गर अनुष्ठान - देव संबंधि भोगों की अभिलाषा से जो धर्मानुष्ठान किया जाता है वह भविष्य में आत्मा के दुःख के तथा पतन के कारण होने से पंडित पुरुषों ने गर अनुष्ठान कहा है। (3) अननुष्ठान - शुद्ध अथवा शुभ भावना के उपयोग के बिना अर्थात् इहलोक और परलोक सम्बन्धी विचार करने की शक्ति रहित समूर्छिम जीवों की प्रवृत्ति के समान किसी प्रकार के विचारों से रहित ऐसे पुरुषों की गुरु-देव पूजा, भक्ति, जप, तप, स्वाध्याय आदि क्रिया अननुष्ठान किये जाते है। वे अननुष्ठान कहलाते है। कारण कि वहाँ मन का उपयोग नहीं है। (4) तद्धेतु - योग के ज्ञाता, पूर्व सेवादिक ऊपर जो राग, बहुमान भाव होता है उसको योग का उत्तम हेतु कहा है। कारण कि उससे युक्त जो भाव पूर्वक सद् अनुष्ठान उसमें शुभ भाव का अंश समाविष्ट है। (5) अमृत अनुष्ठान - अत्यंत संवेग भाववंत ज्ञान-दर्शन-चारित्र गुण में श्रेष्ठतर भाव से युक्त मोक्ष मात्र की अभिलाषावाला जो मुनिभगवंत उत्तम भाव से सम्यग् उपयोग से तप, जप, ध्यानमय अनुष्ठान करते है वे अत्यंत संवेग-रंग से गर्भित होने से उसको तीर्थंकर परमात्मा ने अमृतानुष्ठान कहा है। इस प्रकार विष, गर, अननुष्ठान, तद्धेतु और अमृत - ये पाँच भेद अनुष्ठान के है। उस अनुष्ठान को करनेवाले ऐसे जीवों के कालादि योग से देश, काल, द्रव्य, भाव आदि स्वभाव के योग से अनुष्ठान में भेद पड़ते है। चरम पुद्गल परावर्तन में स्थित और चरम सिवाय अन्य पुद्गल परावर्तन में स्थित जीवों में वैसी-वैसी योग्यता से मुक्ति तथा उस मार्ग के प्रति अद्वेष अथवा द्वेष रूप अध्यवसाय के कारण देव, पूजा, गुरु भक्ति तप, जाप, ध्यान में विलक्षण भेद होते है। उसका कारण यही है कि अद्वेष से तद्धेतु और अमृत अनुष्ठान होता है और द्वेष से विष, गर और अननुष्ठान होते हैं। यह बात सभी प्रकार से न्याय से सिद्ध समझनी चाहिए। तथा इससे यह समझना चाहिए कि चरम पुद्गल परावर्तन में रहे हुए जीवों के जो एक भव मात्र करनेवाले हो अथवा तीन, पाँच आचार्य हरिभद्ररि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII VIA षष्ठम् अध्याय | 412 ]