Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ ये चौदह गुणस्थानक मोक्ष प्राप्त करने में सीढियों के समान है। जैसे मकान के उपरी मंजिल पर चढने के लिए सीढियाँ होती है। वैसे ही गुणस्थानों की भी स्थिति है। पूर्व-पूर्व गुणस्थानों से उत्तर-उत्तर गुणस्थानों में शुद्धि के बढ़ने से अशुभ प्रकृतियों की अपेक्षा शुभ प्रकृतियों का बंध अधिक होता है और फिर इन शुभ प्रकृतियों का भी बंध विच्छेद हो जाने से शुद्धात्मदशा मोक्षदशा प्राप्त होती है। चौदह गुणस्थानको के नाम - मिच्छे सासण मीसे, अविरय देसे पमत्त अपमत्ते। नियट्टिअनियट्टि सुहुम वसम खीण सजोगि अजोगिगुणा // 282 'मिथ्यादृष्ट्याद्ययोगिपर्यन्तेषु'२८३ 1. मिथ्यादृष्टि, 2. सास्वादन सम्यग्दृष्टि, 3. सम्यग् मिथ्यादृष्टि, 4. अविरत सम्यग्दृष्टि, 5. देशविरति, 6. प्रमत्तसंयत, 7. अप्रमत्तसंयत, 8. अपूर्वकरण, 9. अनिवृत्ति बादर संपराय, 10. सूक्ष्म संपराय, 11. उपशांत कषाय वीतराग-छद्मस्थ, 12. क्षीण-कषाय वीतराग छद्मस्थ, 13. सयोगी केवली, 14. अयोगी केवली। जैन दर्शन में आत्म विकास के क्रम को दिखलाने के लिए जैसे चौदह गुणस्थान माने गये है, वैसे ही योगवासिष्ठ में भी चौदह भूमिकाओं का बड़ा रुचिकर वर्णन है। उनमें सात अज्ञान की और सात ज्ञान की भूमिकाएँ है जो जैन परिभाषा के अनुसार क्रमशः मिथ्यात्व की और सम्यक्त्व की सूचक है। अज्ञान की सात और ज्ञान की सात भूमिकाओं के नाम इस प्रकार है - अज्ञान की सात भूमिकाएँ - 1. बीजजागृत, 2. जागृत, 3. महाजागृत, 4. जागृतस्वप्न, 5. स्वप्न, 6. स्वप्न जागृत, 7. सुषुप्तक / 284 ज्ञान की सात भूमिकाएँ - १.शुभेच्छा, 2. विचारणा, 3. तनुमानसा, 4. सत्त्वापति, 5. असंसक्ति, 6. परार्थाभाविनी, 7. तुर्यागा।२८५ ___अज्ञान की भूमिकाओं में उत्तरोत्तर अज्ञान का प्राबल्य होने से उन्हें अविकास काल और ज्ञान की भूमिकाओं में क्रमशः ज्ञानविकास में वृद्धि होने से उन्हें विकास क्रम की श्रेणियाँ कह सकते है। . : योगदर्शन में चित्त की पाँच अवस्थाओं का वर्णन है - 1. मूढ, 2. क्षिप्त, 3. विक्षिप्त, 4. एकाग्र, 5. निरुद्ध / 286 ___ इन चित्तवृत्तियों की गुणस्थानों के साथ एक देश से तुलना हो सकती है। पूर्णतः नहीं। जैन शास्त्रों में जैसे बंध के कारण कर्म-प्रकृतियों का वर्णन है। वैसे ही बौद्ध दर्शन में निम्नलिखित दस संयोजनाएँ बतायी गयी है - सक्काय, दिट्ठि, विचिकित्सा, सीलव्वत, पराभास, कामराग, परीध, रूपराग, अरूपरता, मान, उदघच्च और अविजा।२८७ / / इनमें से प्रथम तीन संयोजनाओं के क्षय होने पर सोतापन्न अवस्था प्राप्त होती है। पाँच औद्भागीय संयोजनाओं के नाश होने पर औपपातिक अनागामी अवस्था एवं दसों संयोजनाओं का नाश होने पर अरहा (अरिहंत) अवस्था प्राप्त होती है। यह वर्णन जैन शास्त्रगत कर्म प्रकृतियों के क्षयक्रम से मिलता जुलता है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VINIK पंचम अध्याय | अ3