________________ सत्क्षयोपशमोत्कर्षादतिचारादिचिन्तया। रहित तु स्थिरं सिद्धि परेषामर्थसाधकम् // 46 ज्ञानसार में उपाध्याय यशोविजयजी म. ने भी ऐसा ही उल्लेख किया है।४७ इस प्रकार स्थानादि पाँचों योग इच्छादि चार-चार प्रकार के होते है। अर्थात् प्रत्येक के चार-चार भेद होने से 5 4 4 = 20 भेद हुए। योग के 80 भेदों में कुछ मतभेद है जैसे कि योगविंशिका के मूल ८वीं गाथा की टीका में “तदेवं हेतुभेदेनानुभावभेदेन चेच्छादिभेदविवेचनं कृतं" जो पंक्ति है यह देखते हुए ऐसा ज्ञात होता है श्रद्धा-प्रीति-धृतिधारणा स्वरूप पूर्वतरवर्ती कारणभेद और अनुकंपा-निर्वेद-संवेग शमत्व स्वरूप पश्चाद्वर्ती कारणभेद के साथ स्थानादि पांच योगों का गुणाकार करे अशीति भेद 80 होते है, ऐसा अर्थ होता है। लेकिन इस अर्थ के लिए विशिष्ट प्रमाण नहीं मिलता है किन्तु विरोध प्राप्त होता है, क्योंकि इच्छायोग का कार्य अनुकंपा, प्रवृत्तियोग का कार्य निर्वेद, स्थिरता योग का कार्य संवेग और सिद्धियोग का कार्य शमत्व इस प्रकार एक-एक कार्य कहे गये उसका उसके साथ गुणाकार करना तो स्पष्ट विरोध दिखता है। ___९वी गाथा की टीका में 80 भेद वाला योग कहा है। अशीति शब्द का दो बार प्रयोग होने से टीकाकारश्री 80 भेदवाला ही योग बता रहे हैं, ऐसा ज्ञात होता है। कुछ गीतार्थ महामुनि इसी ग्रंथ की १८वीं गाथा में आनेवाले प्रीति-भक्ति-वचन और असंग इस प्रकार चार अनुष्ठान इच्छादि योगवाले होने से स्थानादि पाँच योगों को इच्छादि चार से और उनको प्रीति आदि से गुणाकार करने पर 80 भेद होते हैं। योगवाला अनुष्ठान का विषय होने से यह अर्थ अधिक युक्ति संगत लगता है। बीच में प्रासंगिक विधि-अविधि की चर्चा होने से प्रीति आदि अनुष्ठान का वर्णन दूरवर्ती बना है।८ __ गाथा ८वी और ९वी गाथा में टीकाकारश्री ने जो ‘अशीति' शब्द का दो बार प्रयोग किया है, वह उचित ही लगता है। उसका संशोधन करते हुए पूज्य उपाध्याय यशोविजयजी म.सा. कृत ज्ञानासाराष्टक उपर खरतरगच्छीय आचार्य म. श्री दीपचंद्रसूरि के शिष्ट श्री देवचंद्रसूरि रचित 'ज्ञानमञ्जरी' की टीका में 27 वे योगाष्टक की छट्ठी गाथा में अंतिम में और सातवे गाथा के अवतरण में निम्न लिखित स्पष्ट पाठ मिलता है। एकाग्रयोगस्यैवापरनाम अनालंबन योग इति एवं स्थानाद्याः पञ्च इच्छादेर्गुणिता विशंति-र्भवन्ति, ते च प्रत्येकमनुष्ठानचतुष्कयोजिता अशीतिप्रकारा भवन्ति तत्स्वरूप निरूपणायोपदिशति। - स्थानादि पाँच योगों को इच्छादि चार से गुणाकार करने पर 20 होते है और उनको 20 भेदों को प्रीतिभक्ति-वचन और असंग इस चार प्रकार के अनुष्ठान से गुणाकार करने पर 80 भेद होते है। इस प्रकार का संस्कृत पाठ भी बराबर मिलता है। अतः यह अधिक युक्ति संगत है। स्थानादि योग की प्रवृत्ति देशविरति चारित्रवाले सर्व-विरति चारित्र को ही होती है। ऐसा तीसरी गाथा में कहा है और बात की पुष्टि तीसरी गाथा की टीका में योगबिन्दु को साक्षी देकर की है तथा साथ में यह भी कहा आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII IA षष्ठम् अध्याय 403)