Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ है। वे इस प्रकार है - गीतां में कर्म करने की कुशलता' को योग कहा है। - योग दर्शन में 'चित्तवृत्ति निरोध' को योग माना है। बौद्ध दर्शन में 'कुशल प्रवृत्ति को योग स्वीकारा है। जैन दर्शन में 'मोक्खेण उ जोयणाओ त्ति' मोक्ष के साथ आत्मा का युंजन करे वह योग माना है। अर्थात् आत्मा को महानन्द से जोड़ता है / अतः वह योग है। ज्ञानसार में भी योग की परिभाषा यही मिलती है - ‘मोक्षेण योजनात् योगः।५ तत्त्वार्थ सूत्र में मनवचन-काया की क्रिया का निरोध संवर है और वही योग कहलाता है। उपाध्याय यशोविजयजी म. ने योगविंशिका की टीका में परिशुद्ध धर्म व्यापार' को योग कहा है।" उपरोक्त सम्पूर्ण व्याख्याओं को भी समाविष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्रसूरि ने योग विषयक यह भी एक व्याख्या प्रस्तुत की है कि 'मोक्ष का कारणभूत ऐसा सम्पूर्ण धर्म व्यापार' योग ही कहलाता है। __ महर्षि पतञ्जलि ने अपने बनाये हुए योगसूत्र में चित्तवृत्ति' को योग कहा है। वह चित्तवृत्ति दो प्रकार की है - सर्व और आंशिक। चित्तवृत्ति का निरोध सर्व रूप से चौदहवे गुणस्थान शैलेशी अवस्था में अयोगी दशा के समय प्राप्त होता है। उसके पश्चात् शीघ्र मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। इस दशा को महर्षि पतञ्जलि ‘असंप्रज्ञात योग' कहते है। परंतु देश से चित्तप्रवृत्ति का निरोध, अपुनर्बन्धक अवस्था से लेकर वीतरागावस्था तक सभी जगह यह संभव है। बाह्यभावों की निवृत्ति परभव दशा का त्याग ही अंतरंग शुद्ध का परिणामात्मक लक्षण है। महर्षि पतञ्जलि का वचन है कि - स्वयं की भूमिका के अनुसार उचित आचरण करना (2) अकुशल चित्तवृत्तियों को रोकना / इन दोनों में मोक्ष के साथ आत्मा का जुड़ना ऐसा योग शब्द का अन्वर्थ है वह घट सकता है। तथा बौद्धदर्शनकार के अनुसार 'कुशल प्रवृत्ति' ही योग है, यह भी लक्षण सार्थक है कारण कि मोक्ष प्राप्ति का कारणभूत रत्नत्रयी की आराधना स्वरूप प्रवृत्ति द्वारा भी आत्मा का मोक्ष के साथ युंजन होता है, इसीलिए योग का लक्षण इसमें भी घटता है, लेकिन यह लक्षण गौण जानना, कारण कि प्रवृत्ति भी अन्त / त्यागने योग्य है। मात्र प्रारम्भ में ही आदरने योग्य है अन्त में तो अयोगी बनना है। ___महर्षि पतञ्जलि का लक्षण निवृत्ति प्रधान है और बौद्ध का योग लक्षण प्रवृत्ति प्रधान होने से एक-एक अंश का प्रतिपादन करता है। इसलिए आंशिक है। अकुशल की निवृत्ति करो या कुशल की प्रवृत्ति करो परंतु दोनों प्रक्रिया के द्वारा आत्मा मोक्ष के साथ जोड़ा जाए तो ही उस क्रिया को योग कहा जाता है। संसार को पुष्ट करने के लिए निरोध और प्रवृत्ति की जाए तो वह योग नहीं है, तो फिर आत्मा को मोक्ष के साथ युंजित करे वह योग है यह आचार्य हरिभद्र का लक्षण परिपूर्ण यथार्थ है। बगुला मछली को पकड़ता है। शिकारी शिकार करने में चित्तवृत्ति का निरोध करता है। लेकिन मोक्ष के साथ युजन नहीं है। इसी प्रकार सुख, स्वर्ग, राज्यादिक की प्राप्ति के लिए होम-हवन-पूजा रूप कुशल प्रवृत्ति देखी जाती है। लेकिन वहाँ भी मोक्ष के साथ युंजन अर्थ नहीं [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIA षष्ठम् अध्याय | 391 )