Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ षष्ठम् अध्याय योग - दर्शन भारत भूमि में दर्शन एवं योग के बीज तो बहुत पहले से ही बोये गये हैं। उसकी उपज भी क्रमशः बहुत बढती गई। आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने दर्शन एवं योग को आत्मसात् किया तथा उत्तरकाल में योग-प्रियता उत्तरोत्तर विकास की श्रेणी में विकस्वर बने, अतः उन्होंने अपनी मति-वैभवता को विपुल बनाते हुए एवं प्राणियों के हित की इच्छा से योग ग्रन्थों की रचना कर एक अचिन्त्य चिन्तन जगत के सामने प्रस्तुत किया जिसमें उनके मुख्य चार ग्रन्थ विशेष योग-जिज्ञासुओं के लिए पठनीय, मननीय एवं चिन्तनीय है। 1. योग-विंशिका 2. योग-शतक 3. योग दृष्टि समुच्चय 4. योग बिन्दु षोडशक प्रकरण में भी योग विषयक चिन्तन उपलब्ध होता है। इन योग ग्रन्थों का बोध सरल एवं सुगम्य बने उसके लिए आचार्य श्री हरिभद्रसूरिने स्वयं ने इन में से तीन ग्रन्थों पर टीका लिखी एवं योग विंशिका पर महोपाध्याय यशोविजयजी म. ने टीका लिखी। ___इन योग - ग्रन्थों में आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने योग की सामग्री भर दी है साथ ही उदारवादी एव समन्वयवादी बनकर सभी दर्शनों की योग मान्यताओं को स्थान दिया है। इसी कारण इनके योग विषयक ग्रन्थों का प्रभाव अध्यात्म जिज्ञासुओं पर गहरा पड़ा। आचार्य श्री हरिभद्र को विशाल साहित्य का उत्तराधिकार प्राप्त हुआ था। उनके पास केवल साहित्यिक उत्तराधिकार ही था, ऐसा भी नहीं है। उनके योग-विषयक विविध आचार और प्रतिपादन के ऊपर से ऐसा निःशंक प्रतीत होता है कि वे योगमार्ग के अनुभवी भी थे। इसीसे उन्होंने अपने अनुभव तथा साहित्यिक विरासत के बल पर योग विषय से सम्बद्ध ऐसी कृतियों की रचना की है। जो योग-परम्परा विषयक आज तक के ज्ञान साहित्य में अपनी अनोखी विशेषता रखती है। (1) योग की व्युत्पत्ति - आगम शास्त्रों में भी योग शब्द की व्युत्पत्ति मिलती है। योजनं योगः' युज् धातु से योग शब्द की निष्पत्ति होती है। युज् धातु को व्याकरण का घञ् प्रत्यय लगने पर 'योग' शब्द बनता है। जिसका अर्थ जोड़ना संयुक्त करना स्वीकारा गया है। वैसे युज् धातु के अन्य भी अर्थ होते हैं। लेकिन आचार्य श्री हरिभद्र सूरिने भी अपने पूर्वाचार्यों का अनुसरण करते हुए इसी अर्थ को अपने ग्रंथों में ग्रंथित किया है, उनके [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIR IA षष्ठम् अध्याय | 389]