Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ व्यवहार योग का स्वरूप इस प्रकार है - धर्मशास्त्रों में कथित विधि, गुरू का विनय, परिचर्या करना, यथाशक्ति विधि निषेधों का पालन करना। गुरूदेवों का विनय करना। धर्मशास्त्र सुनने की अतिशय उत्कंठा होना, शास्त्रों का ज्ञानाभ्यास स्थानशुद्धि, शरीरशुद्धि, मनशुद्धि, वस्त्रशुद्धि पूर्वक करना। आचार्य हरिभद्रसूरि ने योगशतक की वृत्ति में यहाँ तक कह दिया कि - 'अविधे, प्रत्यवाय हेतुत्वात् अकृतोऽविधिकृत योगादवरम् असच्चिकित्सोदाहरणादिति भावनीयम्।' अर्थात् अविधि से किया गया योग का सेवन अनर्थ का कारण बनता है। अविधि से किये गये योग के सेवन से तो नहीं किये गये योग का सेवन श्रेष्ठ है। प्रतिक्रिया लाएँ वैसी विपरीत चिकित्सा करने से तो चिकित्सा न करनी अच्छी है। अर्थात् जिस औषधि से विपरीत परिणाम आये उससे तो औषधि न लेना अच्छा है। उसी प्रकार अविधि से योग का सेवन करने से कर्मों की निर्जरा नहीं होती है। परंतु उससे विपरीत अन्य का पराभव स्वर्ग यशादि की इच्छा होने से संसार बढ़ता है। ___ आचार्य हरिभद्रसूरि ने यह बात विधि निरपेक्ष जीवों के लिए की है कि वे अविधि से योग का सेवन करके गर्व धारण करते हैं। उच्छृखल बनकर दूसरे का पराभव करते है, प्रायश्चित आदि का सेवन भी नहीं करते हैं, अविधिमार्ग को प्रोत्साहन देते हैं, ऐसे जीवों के लिए अविधिकृत योग सेवन से योग सेवन नहीं करना ही अच्छा है, लेकिन विधि सापेक्षवाले जीवों के लिए यह बात नहीं है, क्योंकि उनके संघयणबल, रोगावस्था आदि के कारण अविधि हो भी जाती है तो उनको अत्यंत दुःख होता है। प्रायश्चित्त आदि भी ग्रहण करते हैं, अतः उन जीवों के लिए तो नहीं करने से तो अविधि से भी करना अच्छा है। . आचार्य हरिभद्रसूरि ने इस कथन के द्वारा योगमार्ग के साधक आत्माओं को योग का अनुष्ठान विधिपूर्वक करने का आग्रह सूचित किया है, साथ में ही व्यवहार योग को विशेष महत्त्व दिया है और कहा है कि कालक्रम से व्यवहार योग से प्रकृष्ट स्वरूप ऐसे सम्यग्ज्ञानादि गुणों की निश्चय प्राप्ति होती है, क्योंकि शुश्रूषा आदि व्यवहार योग का पुनः पुनः आसेवन करने से भविष्य में यह व्यवहार योग निश्चययोग की प्राप्ति का अवन्ध्य कारण होने से निश्चय रूप से सिद्धि की प्राप्ति होती है। ___ इस प्रकार व्यवहार योग के संस्कार एकबार जो बीज रूप में आत्मा में स्थिर बन जाते हैं तो उत्तरोत्तर भवों में अनुबन्धरूप बनने के कारण भवोभव में चारों तरफ से अत्यंत गाढ़ बनने से मार्गानुसारी और जिनेश्वर भगवंत की आज्ञा का अनुसरण करने से विशुद्ध बना हुआ ऐसा यह धर्मानुष्ठान गाढ़ अनुबन्धवाला बनता है और अन्त में निश्चित निश्चययोग की प्राप्ति होती है।१८ योग के अधिकारी - अनादि कालीन संसार में दो मार्ग प्रवाहित हैं - एक भोग का दूसरा योग का। संसार में जो जीव भोग विलासिता में बह रहे हैं, उनके पीछे-पीछे बहनेवाले 'आनुस्रोत सिकि' वाले कहलाते है तथा उससे विपरीत मार्ग में बहनेवाले जीव प्रतिस्रोत-सिकि वाले कहलाते है। योगी आत्माएँ प्रातिस्रोतसिकि वृत्ति का आलंबन लेकर अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँचते हैं। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI. ITA षष्ठम् अध्याय | 395 )