Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ अपने स्वभाव से प्रगटित स्ववीर्य से बलवान् ऐसे कर्मों को भी चकचूर करता है।' (पृथ्वीराज चौहान से सत्रह बार हीरे हुए शाहबुद्दीन ने अठारहवीं बार पृथ्वीराज को भयंकर पराजय के गड्डे में डाल दिया। ऐसा इतिहास बोलता है) इसी प्रकार यह जीव अनेकबार कर्मों से पराजित होने पर भी कभी अपने प्रचंड वीर्यबल के द्वारा कर्म को पराजित बना देता है और अपने सम्यक्त्व आदि गुण को प्राप्त कर लेता है। योगबिन्दु३०६ और श्रावक प्रज्ञप्ति२०७ में यही उल्लेख मिलता है। अतः कर्म-विज्ञान का विज्ञाता स्वकीय में निराश हताश और दीन शोकाकुल नहीं बनता है। क्योंकि वह स्पष्ट जानता है कि 'ईश्वर संज्ञक कोई विशिष्ट दिव्य शक्ति कर्म-प्रदायक नहीं है, कर्म फल का विधायक भी नहीं है। प्राणी के पुरुषार्थ के संयोग से कर्मों में एक ऐसी शक्ति निश्चयतः प्रगट हो जाती है कि वे स्वयं ही प्राणी को उसके कत कर्मों का फल करवाने में सर्वथा सक्षम है। कर्म स्वयं ईश्वर का प्रतिनिधि भी नहीं है। वह प्राणी के पुरुषार्थ का और उसकी भावनाओं का प्रतिनिधित्व अवश्य करता है। बहुधा कर्मवाद का महारथ भाग्यवाद की वैशाखी पर नहीं परन्तु पुरुषार्थ के राजपथ पर अग्रसर है। ___ कर्म-सिद्धान्त के वैशिष्ट्य से विशिष्ट आत्माएँ बाह्य भौतिक सुख सुविधाओं से शायद शून्य हो सकती है लेकिन आध्यात्मिक आत्म वैभव से आपूरित रहती है। उत्तरोत्तर समुत्थान मार्ग को संप्राप्त करती रहती है। निष्कर्ष अस्तु निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते है कि आचार्य हरिभद्रसूरि ने कर्म सिद्धान्त जैसे गम्भीर गहन और व्यापक विषय को आगमिक दार्शनिक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विश्लेषित किया यह उनकी बहुमुखी प्रतिभा का ही संसूचक है। कर्म विषय के प्रतिपादन में अपने पूर्वजों का अनुसरण करने के साथ ही निष्पक्षी बनकर इतना प्रगाढ़ एवं दार्शनिक तथ्यों से भरपूर चिन्तन दिया है वह प्रत्येक दार्शनिकों को नया आयाम देनेवाला है। . आचार्य हरिभद्रसूरि ने योगबिन्दु' ग्रन्थ में कर्म और पुरुषार्थ की भिन्न-भिन्न व्याख्या करके उसे व्यवहार नय एवं निश्चय नय, बाध्य-बाधक भाव, गौण-प्रधान भाव समझाकर कर्म-सिद्धान्त के जिज्ञासुओं को एक नया दिग्दर्शन कराया है।३०८ ‘धर्मसंग्रहणी'३०९ की टीका में इसका विस्तृत विवेचन है। तथा सांख्यवादी (कालवादी) जो केवल काल से दोनों को भिन्न मानते है उनको भी कर्म और पुरुषार्थ दोनों परस्पर एक दूसरे के आश्रित है३९० तथा व्यवहार नय आदि की अपेक्षा से सोचा जाय तो दैव और पुरुषार्थ समान बलवाले है / उसमें शास्त्र का विरोध नहीं आता है।३११ इस प्रकार कहकर सत्य तत्त्व को समझाया है। आचार्य हरिभद्रसूरि का यह कर्म विषयक चिन्तन युग-युगों तक अविस्मरणीय एवं गौरवान्वित रहेगा। क्योंकि उन्हें प्रत्येक सिद्धान्त को समन्वयता एवं उदारता से सिद्ध करने का प्रयास किया है। यह कहने में भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उन्होंने स्वयं ने भी अपने जीवन में कर्म की अशुभ शुभता का अनुभव नहीं किया हो अर्थात् प्रत्येक जीव अपने कर्म का कर्ता और भोक्ता बनता है। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIA पंचम अध्याय 379 )