Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ वेदनीय आयुष्य नाम और गोत्र की सत्ता 1 से 14 गुणस्थानक तक होती है। विशेष रूप से विचार किया जाय तो बासठ मार्गणा आदि में भी बंध, उदय, सत्ता का स्वामीत्व है। जैसे गति में नरकगति में कितनी प्रकृतियाँ का बंध, उदय, सत्ता आदि इसका विचार किया जाता है। स्वामीत्व का विश्लेषण बहुत ही विस्तृत रूप से कर्मग्रंथ एवं कर्म-प्रकृति में किया गया है। (16) कर्म का वैशिष्ट्य - कर्म सिद्धान्त भारतीय चिन्तकों के चिन्तन का नवनीत है। सभी आस्तिक दर्शनों का भव्य भवन कर्म सिद्धान्त पर ही आश्रित है। भले कर्म के स्वरूप में मतैक्य न हो लेकिन सभी चिन्तकों ने आध्यात्मिक विकास के लिए कर्म-मुक्ति आवश्यक मानी है। यही कारण है कि सभी दर्शनों ने कर्म-विषयक अपना-अपना चिन्तन प्रस्तुत किया है। परंतु जैन-दर्शन में कर्म-विषयक चिन्तन बहुत सूक्ष्मता से किया गया है। इस संसार में चोरासीलाख जीवायोनियों में चारों गति के जीव पूर्वकृत कर्मों का भोग करते है। क्योंकि पूर्व में किये हुए शुभ अथवा अशुभ कर्म सौ कोटि युग के बाद भी भोगे बिना क्षय नहीं होते है।३०३ जिस प्रकार सैंकडो गायों में भी वत्स अपनी माता को शोध लेता है, वैसे कर्म व्यक्ति को सैंकडो वर्षों के बाद भी शोध लेते है। तथा कोष में धन के समान पूर्वकृत कर्म का फल पहले से ही विद्यमान रहता है और जिस-जिस रूप में अवस्थित रहता है उस-उस रूप में उसे सुलभ करने के लिए मनुष्य की बुद्धि सतत उद्यत रहती है। उसी प्रकार करने के लिए मानो हाथ में दीपक लिये आगे-आगे चलती है।३०४ इस प्रकार प्रत्येक संसारी जीवात्मा कर्म की बलवत्ता से दबे हुए है। लेकिन इतना तो निश्चित है कि चारों गतियों में से तीन गतियों के जीव कर्म को पुरुषार्थ, संयोग के द्वारा सम्पूर्ण नाश करने में समर्थ नहीं है तथा मनुष्य गति में जिसका तथाभव्यत्व परिपक्व नहीं हुआ, चरम पुद्गल परावर्तन काल तक नहीं पहुँचा हो, वह भी कर्मों से पराजित हो जाता है। लेकिन जिस आत्मा का तथा भव्यत्व परिपक्व हो जाता है और चरम पुद्गल में आ जाता है वह सम्पूर्ण कर्मों को अपने प्रबल पुरुषार्थ तप, त्याग, ध्यान, भावना द्वारा क्षय कर सकता है और वह मनुष्य गति में ही शक्य है। कर्म एवं आत्मवीर्य के बलाबल का चित्रण आचार्य हरिभद्रसूरि ने बहुत ही दार्शनिक शैली से किया हैकत्थइ जीवो बलिओ कत्थइ कम्माइं होति बलियाई। एएण कारणेणं सव्वेसि न वीरिउक्करिसो॥३०५ देशकालादि में कभी जीव बलवान् होता है। इसी कारण अनंत जीव अत्यन्तक्लिष्ट विपाकवाले ज्ञानावरणीयादि कर्मों का क्षय करके सिद्धि पद प्राप्त हुए हैं। जैसे स्वयं महावीर परमात्मा के जीवन में अत्यंत क्लिष्ट विपाकोदय वाले कर्म आये लेकिन परमात्मा ने अपने आत्म वीर्य के प्रकर्ष पुरुषार्थ द्वारा कर्म के हालबेहाल कर दिये और उन्होंने उत्कृष्ट मोक्ष सुख को पा लिया। अतः इससे सिद्ध होता है कि जीव कर्म से बलवान् है लेकिन साथ में जितने सिद्ध हुए उससे अनंतगुण जीव कर्म के परवश होकर संसार सागर में भटकते हुए दृष्टिगोचर होते है। उसीसे कभी देशकालादि की अपेक्षा से कर्म जीव से बलवान् है। यह भी बात सिद्ध होती है, जैसे कि नंदिषेण का प्रबल पुरुषार्थ होने पर भी निकाचित बंधा हुआ कर्म अवश्य उदय में आया और पुरुषार्थ को निर्बल बना दिया। लेकिन इतना तो निश्चित ही है कि कर्म से पूर्व में अनेकबार जीता हुआ भी जीव कभी तो | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIM VIIIA पंचम अध्याय - 378 ]