________________ इस प्रकार हम देखते है कि आत्मविकास के इच्छुक दर्शनों ने अपने-अपने ढंग से विकासक्रम का उल्लेख किया है। पर उनमें क्रमबद्ध धारा के दर्शन नहीं है। जैन दर्शन में इसकी विस्तार से चर्चा हुई है। गुणस्थान में जब कर्म विषयक चिन्तन करते है, तब एक अपूर्व धारा प्रवाहित होती है। वह है बंध, उदय, उदीरणा और सत्ता की। जीवों को सामान्य से मूल आठ कर्म और उत्तर प्रकृतियों में से कौन-कौन से गुणस्थान तक कितनी कितनी प्रकृतियाँ बंध, उदय, उदीरणा और सत्ता में रह सकती है। क्योंकि प्रत्येक प्रकृतियों का अपने निश्चित गुणस्थान तक ही बंध, उदय, उदीरणा एवं सत्ता होती है। मर्यादा में रहकर ही अपना प्रभाव दिखाती है। तत्पश्चात् उसका प्रभाव विच्छेद हो जाता है। सामान्य अपेक्षा से बंध प्रकृतियाँ 120, उदय व उदीरणा 122, सत्ता प्रकृतियाँ 148 है। बंध, उदय और उदीरणा में मूल तथा उत्तर प्रकृतियाँ कौन से गुणस्थान में कितनी रहती है / उसका कोष्टक इस प्रकार है बंध उदय उदीरणा .. मूल प्रकृति उत्तर प्रकृति मूल प्रकृति | उत्तर प्रकृति | 122 122 117 8/7 122 117 100 77 104 6 | गुणस्थान मूल प्रकृति उत्तर प्रकृति ओघ से 120 मिथ्यात्व सारस्वादन 101 मिश्र 74 अविरति सम्यग्दृष्टि देशविरति 67 प्रमत्तसंयत अप्रमत्त संयत 59.48 अपूर्वकरण 58,56, अनिवृत्ति बादर | 22, 21, 20, 19, 18 सूक्ष्म संपराय उपशांत कषाय क्षीण कषाय सयोगी केवली अयोगी केवली G GANGA 0 . W 6 W . 56 1.55 54, 52 288 | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / पंचम अध्याय 374