Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ उन कर्मों का उदयकाल परिपक्व होने पर उदय में आते है, और उदित कर्मों में रागादि उत्पन्न करने का यह परिणामक स्वभाव होता है और आत्मा में उनका रागादि रूप में परिणाम प्राप्त करना ऐसा परिणाम्य स्वभाव होता है। जैसे कि फूल का स्फटिक में प्रतिबिम्ब पड़ता है, दीवार में नहीं पड़ता है। अग्नि से तृण जलता है पत्थर नहीं जलता और तृण को अग्नि जलाती है जल को नहीं जलाती है। अर्थात् जिस प्रकार आत्मा में परिणामी स्वभाव और कर्मों में परिणामक स्वभाव है इसलिए ही कर्मोदय के निमित्त से आत्मा में रागादि परिणाम होते है। इन दोनों के सापेक्ष होने पर ही यह सब घटित हो सकता है।५९ (9) कर्म और पुनर्जन्म - कर्म और पुनर्जन्म का चक्र साथ-साथ ही चलता है। जीवात्मा में राग-द्वेष है वहाँ तक कर्म बंधन होता ही रहेगा और कर्म होगा तो पुनर्जन्म भी होना ही है / कहा है कर्मणः जन्म जन्मात् पुनः कर्म। पुनरपि जन्म पुनरपि जन्म पुनरपि कर्म॥ पाप प्रवृत्ति से बांधे हुए कर्म के कारण भवांतर में जीव को जन्म धारण करना पडता है और उस जन्म में जीव पुनः कर्म उपार्जन करता है और आगे पुनः जन्म धारण करता है। इस तरह कर्म के कारण जन्म और जन्म के कारण पुनः कर्म का विषमचक्र अनंतकाल तक चलता रहता है। उत्तराध्ययन सूत्र में स्वयं परमात्मा ने कर्म को जन्म-मरण का कारण बताया है - कम्मं च जाई मरणस्स मूलं दुःखं जाई-मरणं वयन्ति।२६० कर्म ही जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण ही दुःख है। दिगम्बर ग्रंथ पंचास्तिकाय में भी इस विषय को इस प्रकार स्पष्ट किया है कि जो जीव संसार में स्थिर अर्थात् जन्म-मरण के चक्र में पड़ा हुआ है उसके राग और द्वेष परिणाम होते है। उन परिणामों के कारण नये कर्म बन्धते है। कर्मबंध के फलस्वरूप गतियों में जन्म लेना पड़ता है।२६१ अर्थात् सारांश रूप में हम यह कहते है कि कर्म संसार सन्तति का मूल कारण है जब कर्म का विच्छेद होगा तब ही जन्म-मरण की परंपरा का अंत होगा। (10) कर्म और जीव का अनादि संबंध - कर्म और जीव का संबंध अनादि काल से चला आ रहा है / जब वह अव्यवहार राशि निगोद में आया तब भी कर्म से वह संयुक्त था तथा व्यवहार राशि में आने के बाद भी उसकी विकास दृष्टि जागृत हुई है। लेकिन अभी भी संसार में है वहाँ तक कर्मों से जुड़ा हुआ है। अर्थात् कर्मों की आदि कब हुई इस कथन को हम किसी भी युक्ति से चरितार्थ नहीं कर सकते क्योंकि आगम ग्रन्थों में उसकी अनादि के स्पष्ट उल्लेख मिलते है। आचार्य हरिभद्रसूरि 'योगबिन्दु' आदि ग्रन्थों में जीव और कर्म के अनादि संबंध बताते हुए कहते है कि जीव और कर्म का संयोग भी जीव की योग्यता बिना संभव नहीं है। उसी से जीव और कर्म सम्बन्धी जो योग्यता है वही उसका अनादि स्वभाव है उसीसे कर्म का जीव के साथ जो संयोग सम्बन्ध है वह भी अनादि काल का ही | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIII II VA पंचम अध्याय | 366]