Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ हताश और शोकाकुल नहीं होता है। जीव आवागमन से छुटकारा पाकर अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य और अनन्त सुख चतुष्ट्य को आत्म शक्ति द्वारा जगाता है। कर्म सिद्धान्त वस्तुतः जीवन को सक्रिय बनाता है। बंध से लेकर क्षय होने तक आत्मा और कर्मशक्ति के बीच एक प्रकार का संघर्ष छिडा रहता है। जैन कर्म सिद्धान्त में बन्ध आदि अनेक अवस्थाओं द्वारा इस संघर्ष की स्थिति का दिग्दर्शन कराया गया, जिससे कर्म की कभी प्रभावकता सिद्ध होती है तो कभी आत्मशक्ति की अपूर्व अजोड़ अद्भुत बलवत्ता प्रसिद्ध होती है। (7) मूर्त का अमूर्त पर उपघात - कर्म की मूर्त्तता एवं आत्मा की अमूर्तता का संबंध तथा उपघात अनुग्रह आदि को लेकर विशेषावश्यक भाष्य में गणधरवाद में चर्चाएँ हुई है वहाँ दूसरे गणधर अग्निभूति के शंका का समाधान करते हुए कहा कि जिस प्रकार मूर्त ऐसे घट का अमूर्त ऐसे आकाश के साथ संयोग संबंध है तथा अंगुली आदि द्रव्यों का संकोचन प्रसारण आदि क्रियाओं के साथ समवाय संबंध है, उसी प्रकार आत्मा और कर्म का संबंध भी है।५१ यही बात आचार्य हरिभद्रसूरि ने धर्मसंग्रहणी में कही है - मुत्तेणामुत्तिमतो जीवस्स कहं हवेज संबंधो। सोम्म ! घडस्स व णभसा जह वा दव्वस्स किरियाए॥ मूर्त ऐसे कर्मों का अमूर्त ऐसे आत्मा के साथ कैसे संबंध हो सकता है ? लेकिन उनकी यह मान्यता बराबर नहीं है / इस बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्रसूरि कहते है कि हे सौम्य ! जिस प्रकार अमूर्त ऐसे आकाश के साथ घड़ा का संबंध है, द्रव्य अंगुली आदि का अमूर्त संकोचन, प्रसारण आदि क्रियाओं के साथ संबंध है वैसे आत्मा और कर्म का संबंध है।२५२ __तथा मूर्त ऐसे कर्मों का अमूर्त ऐसे आत्मा पर अनुग्रह या उपघात कैसे घटित हो सकता है क्योंकि कर्म तो मूर्त है, वर्णवाला है, रूपी है और आत्मा अमूर्त है, वर्णादि रहित है, अरूपी है जैसे आकाश अमूर्त है उसको मूर्त ऐसे पत्थर से उपघात या फूल की माला से अनुग्रह अथवा अग्नि की ज्वाला से उपघात या चन्दन से अनुग्रह नहीं होता वैसे ही मूर्त्त कर्मों का अमूर्त आत्मा पर उपघात या अनुग्रह नहीं होना चाहिए।' लेकिन उनकी यह धारणा युक्ति-युक्त नहीं है। आचार्य हरिभद्रसूरि इस तथ्य को एक दर्शनिक युक्तियों से स्पष्ट करते हुए कहते है कि मुत्तेणममुत्तिमओ उवघायाऽणुग्गहा वि जुजति / जह विण्णाणस्स इहं मइरापाणोसहादीहिं।२५३ जिस प्रकार बुद्धि अमूर्त है फिर भी मदिरापान से उपघात और ब्राह्मी आदि औषधि से अनुग्रह होता है वैसे ही मूर्त कर्मों के द्वारा अमूर्त आत्मा को उपघात और अनुग्रह घटित होता है। अर्थात् विज्ञान विवाद करने की इच्छा, धैर्य, स्मृति आदि आत्मा के अमूर्त धर्म है उसको मदिरा-पान विष और मच्छर आदि के भक्षण से उपघात होता है और दूध, साकर, घी से युक्त औषधि सेवन से अनुग्रह होता ही है। लेकिन पत्थर और पुष्पमाला आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII पचम अध्याय | 364