Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ भोगों को नहीं भोग सकता है। वह भोगान्तराय कहलाता है। उपभोगान्तराय - उपभोगरूप वस्तुओं के होने पर तथा विरतिरूप परिणाम के न होने पर भी जिसके उदय से जीव उपभोग नहीं कर पाता उसे उपभोगान्तराय कहते है। जो वस्तु एक बार ही भोग में आती है उसे भोग कहा जाता है। जैसे माला, आहार आदि तथा जो वस्तु बार-बार भोगने में आती है उसे उपभोग कहा जाता है। सइ भुज्जइ त्ति भोगो सो उण आहार फूलमाईसु। उपभोग उ पुणो पुण उवभुज्जइ भुवणव-लयाई। * वीर्यान्तराय - जिसके उदय से प्राणी निरोगी व योग्य अवस्था को प्राप्त होकर भी हीन वीर्यवाला हुआ करता है। उसका नाम वीर्यान्तराय है। शक्ति सामर्थ्य पराक्रम होने पर भी तप, त्याग, ध्यान आदि नहीं करता है। वह जीव वीर्यांतराय कर्म का बंध करता है।२३८ ___ आठों कर्मों के उत्तर प्रकृतियों के भेद ‘उत्तराध्ययन सूत्र' 239 तत्त्वार्थ सूत्र' 240 ‘प्रशमरति' 241 'कर्मग्रन्थ'२४२ तथा हरिभद्रसूरि रचित 'श्रावक प्रज्ञप्ति' 243 तथा 'धर्मसंग्रहणी'२४४ में मिलते है। इन्हीं उत्तर प्रकृतियों का विशेष विवेचन तत्त्वार्थभाष्य'२४५ ‘उत्तराध्ययन टीका' 246 ‘प्रशमरति टीका'२४७ 'प्रथम कर्मग्रन्थ टीका'२४८ 'धर्मसंग्रहणी टीका'२४९ तथा आचार्य हरिभद्रसूरि रचित 'श्रावक प्रज्ञप्ति टीका'२५० और प्रज्ञापना' में किया है। ___लेकिन इतना विशेष है कि नामकर्म के भेद कर्मग्रंथ में 42, 93 तथा 103 तीनों प्रकार बताये गये हैं। जब कि तत्त्वार्थ सूत्र, श्रावक प्रज्ञप्ति और धर्मसंग्रहणी में 42 भेद ही नामकर्म के लिये है तथा उत्तराध्ययन सूत्र की मूल गाथा में नामकर्म के शुभ और अशुभ दो भेद बताये है। लेकिन इस संख्याओं में नामकर्म की मानी गई प्रकृतियों में से न तो किसी प्रकृति को छोड़ा गया है और न अधिकता के लिए किसी नई प्रकृति का समावेश ही किया है। इस संख्या की भिन्नता का कारण अपेक्षादृष्टि है। प्रथम कर्मग्रंथ की टीका में उत्तर प्रकृतियों का विवेचन बहुत ही सचोट एवं युक्तियुक्त किया गया है तथा आचार्य हरिभद्रसूरि भी जैन वाङ्मय में एक कर्मवेत्ता बनकर श्रावक प्रज्ञप्ति टीका' एवं प्रज्ञापना टीका' में एकएक प्रकृति का पूर्वाचार्यों का अनुसरण करते सुंदर विवेचन किया है। इस प्रकार आठ कर्मों के भेद एवं प्रभेदों व उनके लक्षण का संक्षेप में दिग्दर्शन किया गया। कर्म विचारणा के प्रसंग में उनका सैद्धान्तिक रूप अभिव्यक्त किया गया है। परंतु जब वे (कर्म) जीवन में अपना साकार रूप अंगीकार कर लेते हैं तब अपना अपना स्वभाव कार्य द्वारा भी प्रकट कर देते है और संसार अनंत संसार की जन्म मरण की परंपरा से जुड़ जाता है। कर्म कितने ही बलवान् क्यों न हो किन्तु आत्म शक्ति से उनकी शक्ति अधिक नहीं है वे नष्ट होते है। कर्म का बन्ध स्वयं आत्मा करती है और क्षय का कार्य आत्मा करती है। इसके बन्ध और क्षय होने तक प्रवाह में शक्ति द्वारा उनमें अनेक परिवर्तन होते है। कभी-कभी कर्म बलवान् बनकर अपना अपूर्व बल का प्रदर्शन करता है। लेकिन कर्म-विज्ञान का विज्ञाता स्वकीय जीवन में निराश आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI II यू पंचम अध्याय | 363