________________ यानि चर्म-चक्षुओं से ही एक जीव का न दिखना ही नहीं है, अपितु सूक्ष्म नामकर्म का उदय जीवों में ऐसी सूक्ष्मता पैदा करता है जिससे समुदाय अवस्था में भी प्राणी दिखायी नहीं देते है / ये समस्त लोकाकाश में व्याप्त होते है। अपर्याप्त नाम - जिस कर्म के उदय से जीव स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण न कर पाये, उसे अपर्याप्त नामकर्म कहते है। साधारण नाम - जिस कर्म के उदय से अनन्त जीवों का एक ही शरीर हो वह साधारण नामकर्म कहलाता है। उन सभी का जीवन, मरण, आहार, श्वासोच्छ्वास एक साथ में होता है। जिनकी शिराएँ संधि अप्रकट हो, मूल, कन्द, त्वचा, कोंपल, टहनी, पत्र, फूल तथा बीजों को तोड़ने पर समान भंग हो दोनों भागों में परस्पर तन्तु न लगे रहे उसे साधारण उसके विपरीत प्रत्येक वनस्पति समझना चाहिए।२१७ साधारण का ऐसा ही स्वरूप 'जीवविचार'२१८ में भी बताया गया है। अस्थिर नाम जिस कर्म के उदय से नासिका, मुंह, जीभ आदि शरीर अवयव चपल अस्थिर होते है उसे अस्थिर नामकर्म कहते है। अशुभ नाम - जिस कर्म के उदय से नाभि से नीचे के अवयव अशुभ हो उसे अशुभ नामकर्म कहते है। दुर्भग नाम - जिस कर्म के उदय से उपकार करने पर भी जीव सबको अप्रिय लगता है, दूसरे जीव शत्रुता एवं ईर्ष्या, द्वेष, वैर भाव रखे वह दुर्भग नामकर्म कहलाता है। दुःस्वर नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर व वचन श्रोता को सुनने में अप्रिय कर्कश प्रतीत हो उसे दुःस्वर नामकर्म कहते है। अनादेय नाम - जिस कर्म के उदय से जीव का युक्तियुक्त वचन भी अग्राह्य समझा जाता है उसे अनादेय नामकर्म कहते है। अयशः नाम - जिस कर्म के उदय से जीव का लोक में अपयश और अपकीर्ति फैले वह अयशः नामकर्म कहलाता है। 'थावर सुहम अपजं साहारणमथिर मसुभदुभगाणि दुस्सरऽणाइजाऽजस'२१९ इस प्रकार नामकर्म की उत्तर प्रकृतियाँ का विवेचन पूर्ण हुआ है। संक्षेप में नामकर्म की सभी प्रकृतियाँ का दो में समावेश हो सकता है। शुभनामकर्म और अशुभ नामकर्म। नामेकम्मे दुविहे पण्णत्ते तं जहा सुभणामे चेत्र अशुभ णामे चेव।२२० शुभः पुण्यस्य। अशुभः पापस्य।२२१ शुभ प्रकृतियाँ पुण्य और अशुभ प्रकृतियाँ पाप रूपात्मक होती है। गोत्र कर्म - जिस कर्म के उदय से जीव उच्च और नीच कहलाता है उसे गोत्र कर्म कहते है। कोशकारों | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIII 4 पंचम अध्याय | 3611